Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 222
________________ ( 216 ) समझना चाहिये / वस्तुस्वरूप को समझने से मेरे परिणाम पर से और पर के परिणाम मुझसे-ऐसी पराश्रित बुद्धि नहीं रहती अर्थात् स्वाश्रित-स्वसन्मुख परिणाम प्रगट होता है, यही धर्म है। __ आत्मा को जो ज्ञान होता है उसको जानने के परिणाम आत्मा के आश्रित है, वे परिणाम वाणी के आश्रय से नहीं हुए है, कान के आश्रय से नहीं हुए है, तथा उस समय की इच्छा के आश्रय से भी नही हुए हैं। यद्यपि इच्छा भी आत्मा के परिणाम हैं, परन्तु उन परिणामो के आश्रित ज्ञान परिणाम नहीं है, ज्ञान परिणाम आत्मवस्तु के आश्रित हैं -इसलिये वस्तु सन्मुख दृष्टि कर। बोलने की इच्छा हो, होठ हिले, भापा निकले ओर उस समय उस प्रकार का ज्ञान हो--ऐसी चारो क्रियाये एक साथ होते हुए भी कोई क्रिया किसी के आश्रित नही, सभी अपने-अपने परिणामी के ही आश्रित है / इच्छा बह आत्मा के चारित्रगुण के परिणाम हैं, होठ हिले वह होठ के रजकणो की अवस्था है, वह अवस्था इच्छा के आधार से नहीं हुई। भाषा प्रगट हो वह भापावर्गणा के रजकणो की अवस्था है वह अवस्था इच्छा के आश्रित या होठ के आश्रित नहीं हुई, परन्तु परिणामी ऐने रजकणो के आश्रय से वह भापा उत्पन्न हुई है और उस समय का ज्ञान आत्मवस्तु के आश्रित है, इच्छा अथवा भाषा के आश्रित नहीं है, ऐसा वस्तुस्वरूप है / भाई, तीन काल तीन लोक मे सर्वज्ञ भगवान का देखा हुआ यह वस्तुस्वभाव है, उसे जाने बिना और समझने की परवाह बिना अन्धे की भाति चला जाता है, परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान के बिना किसी प्रकार कही भी कल्याण नही हो सकता। इस वस्तुस्वरूप को बारम्बार लक्ष मे लेकर परिणामो मे भेदज्ञान करने के लिए यह बात है। एक वस्तु के परिणाम अन्य वस्तु के आश्रित तो है नही, परन्तु उस वस्तु मे भी उसके एक परिणाम के आश्रित दूसरे परिणाम नही

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