Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 229
________________ ( 223 ) वाह / देखो, आचार्यदेव की शैली थोडे मे बहुत समा देने की है। चार बोलो के इस महान सिद्धात मे वस्तुस्वरूप के बहुत से नियमो का समावेश हो जाता है। यह त्रिकाल सत्य सर्वज्ञ द्वारा निश्चित किया हुआ सिद्धात है। अहो, यह परिणामी के परिणाम की स्वाधीनता, सर्वज्ञदेव द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप का तत्त्व, सन्तो ने इसका विस्तार करके आश्चर्यकारी कार्य किया है, पदार्थ का पृथक्करण करके भेदज्ञान कराया है। अन्दर मे इसका मन्थन करके देख तो मालूम हो कि अनन्त सर्वज्ञो तथा सन्तो ने ऐसा ही वस्तु स्वरूप कहा है और ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। ___ सर्वज्ञ भगवन्त दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा तत्त्व कहते आये हैं—ऐसा व्यवहार से कहा जाता है, दिव्यध्वनि तो परमाणुओ के आश्रित है। ___ कोई कहे कि अरे, दिव्यध्वनि भी परमाणु-आश्रित है ? हाँ, दिव्यध्वनि वह पुद्गल का परिणाम है, और पुद्गल परिणाम का आधार तो पुद्गल द्रव्य ही होता है, जोव उसका आधार नहीं हो सकता। भगवान का आत्मा तो अपने केवल ज्ञानादि का आधार है। भगवान आत्मा तो केवलज्ञान-दर्शन-सुख इत्यादि निज परिणामरूप परिणमन करता है, परन्तु कही देह और वाणीरूप अवस्था धारण करके भगवान का आत्मा परिणमित नहीं होता, उस रूप तो पुद्गल ही परिणमित होता है। परिणाम परिणामी के ही होते हैं, अन्य के नहीं। भगवान की सर्वज्ञता के आधार से दिव्यध्वनि के परिणाम हुएऐसा वस्तुस्वरूप नही है। भाषा परिणाम अनन्त पुद्गलाश्रित है, और सर्वज्ञता आदि परिणाम जीवाश्रित है, इस प्रकार दोनो की भिन्नता है। कोई किसी का कर्ता या आधार नही है। देखो, यह भगवान आत्मा की अपनी बात है / समझ मे नही आयेगी, ऐसा नही मानना; अन्दर लक्ष करे तो समझ मे आये-ऐसी सरल है। देखो, लक्ष मे लो कि अन्दर कोई वस्तु है या नही ? और यह जो जानने के या रागादि के भाव होते हैं इन भावों का कर्ता कौन

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