Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 245
________________ ( 239 ) निमित्त-कहै निमित्त वे जीव को मो विन जग के मांहि / सबै हमारे वश परे, हम बिन मुक्ति न जाहिं // 28 अर्थ-निमित्त कहता है कि मेरे विना जगत मे मात्र जीव क्या कर सकता है ? सभी मेरे वश मे है, मेरे विना जीव मोक्ष भी नही जा सकता। उपादान-उपादान कहै रे निमित्त! ऐसे बोल न बोल। तोको तज निज भजत हैं, ते ही करें किलोल // 26 अर्थ-उपादान कहता है कि हे निमित्त / ऐसी बात मत कर तेरी ऊपर की दृष्टि को छोडकर जो जीव अपना भजन करता है वही आनन्द करता है। निमित्त-कह निमित्त हमको तज, कैसे शिव जात / पंचमहावत प्रगट हैं और हु क्रिया विख्यात // 30 अर्थ-निमित्त कहता है कि मुझे छोडकर कोई मोक्ष कैसे जा सकता है ? पच महाव्रत तो प्रगट हैं ही और दूसरी क्रियाये भी प्रसिद्ध है। जिन्हे लोग मोक्ष का कारण मानते है। उपादान-पंच महावत जोग त्रय और सकल व्यवहार। पर को निमित्त खपाय के तब पहुंचे भवपार // 31 अर्य-उपादान कहता है पच महाव्रत, तीन योग की ओर का लक्ष्य और समस्त व्यवहार तथा निमित्त का लक्ष्य दूर करके ही जीव भव से पार होता है। निमित्त-कह निमित्त जग मैं बड्यो, मोते बड़ो न कोय / तीन लोक के नाथ सब, मो प्रसाद तें होय // 32 ___ अर्थ-निमित्त कहता है कि जगत मे मैं बडा हूँ, मुझसे वडा कोई नही है, तीन लोक का नाथ भी मेरी कृपा से होता है। ___ नोट-(सम्यग्दर्शन की भूमिका मे ज्ञानी जीव के शुभ विकल्प करने पर तीर्थकर नाम कर्म का वन्ध होता है, इस दृष्टान्त को उपस्थित करके निमित्त अपनी बलवत्ता को प्रगट करना चाहता है।)

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