Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 246
________________ ( 240 ) उपादान-उपादान कहैं तू बडा, चहुँ गति में ले जाय। तो प्रसाद ते जीव सब दुःखी हो हि रे भाय // 33 अर्थ-उपादान कहता है अरे निमित्त / तू कौन ? तू तो जीव को 'चारो गतियो मे ले जाता है। भाई, तेरी कृपा से सभी जीव दुःखी ही होते हैं। नोट-(निमित्ताधीन दृष्टि का फल चारो गति ससार है, निमित्त के कारण जीव चार गति मे जाता है-ऐसा नही है।) 'निमित्त, कहँ निमित्त जो दुःख सहै, सो तुम हमहि लगाय। सुखी कौन तें होत है, ताको देहु बताय // 34 अर्थ-निमित्त कहता है-जीव तो दुख सहन करता है उसका दोष तू हमारे ऊपर लगाता है, किन्तु यह भी बताओ कि जीव सुखो किससे होता है ? उपादान-जो सुख को तूं सुख कहै सो सुख तो सुख नाहिं। ये सुख दुख के मूल हैं, सुख अविनाशि माहि // 35 अर्थ-उपादान कहता है कि तू जिस सुख को सुख कहता है वह सुख ही नहीं है, वह सुख तो दुख का मूल है। आत्मा के अन्तरग मे अविनाशी सुख है। निमित्त-अविनाशी घट घट बसे, सुख क्यों विलसत नाहिं। शुभ निमित्त के योग बिन परे परे बिल लाहि // 36 अर्थ-निमित्त कहता है कि अविनाशी सुख तो घट-घट मे प्रत्येक जीव मे विद्यमान है। तब फिर जीवो के सुख का विलास-सुख का भोग क्यो नही होता। शुभ निमित्त के योग के विना जीव क्षण-क्षण मे दुखी हो रहा है। उपादान-शुभ निमित्त इह जीव को मिल्यो कई भवसार। पैइक सम्यक दर्श बिन, भटकत फिर्योगवार॥३७ अर्थ-उपादान कहता है-~-शुभ निमित्त इस जीव को कई भवो मे

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