Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 236
________________ ( 230 ) नही है। नयी-नयी पर्यायरूप होना वह वस्तु का अपना स्वभाव है, तो कोई उसका क्या करेगा? इन सयोगो के कारण यह पर्याय हुई, -इस प्रकार सयोग के कारण जो पर्याय मानता है उसने वस्तु के परिणामनस्वभाव को नही जाना है, दो द्रव्यो को एक माना है / भाई, तू सयोग से न देख, वस्तुस्वभाव को देख / वस्तुस्वभाव ही ऐसा है वह नित्य एकरूप न रहे / द्रव्यरूप से एकरूप रहे परन्तु पर्यायल्प से एकरूप न रहे, पलटता ही रहे-ऐसा वस्तुस्वरूप है। इन चार वोलो से ऐसा समझाया है कि वस्तु स्वय ही अपने परिणाम रूप कार्य को कर्ता है-यह निश्चित सिद्धात है। इस पुस्तक का पृष्ठ पहले ऐमा था और फिर पलट गया, वहाँ हाथ लगने से पलटा हो ऐसा नहीं है, परन्तु उन पृष्ठो के रजकणो मे ही ऐसा स्वभाव है कि सदा एकरूप उनकी स्थिति न रहे, उनकी अवस्था बदलती रहती है, इसलिये वे स्वय पहली अवस्था छोडकर दूसरी अवस्था रूप हुये है, दूसरे के कारण नही / वस्तु मे भिन्न-भिन्न अवस्था होती ही रहती है, वहाँ सयोग के कारण वह भिन्न अवस्था हुई-ऐसा अज्ञानो का भ्रम है, क्योकि वह सयोग को हो देखता है परन्तु वस्तस्वभाव को नही देखता। वस्तु स्वय परिणमनस्वभावी है, इसलिए वह एक ही पर्यायरूप नहीं रहती,-ऐसे स्वभाव को जाने तो किसी सयोग से अपने मे या अपने से पर मे परिवर्तन होने की बुद्धि छूट जाये और स्वद्रव्य की ओर देखना रहे, इसलिए मोक्षमार्ग प्रगट हो। पानी पहले ठडा था और चूल्हे पर आने के बाद गर्म हुआ, वहाँ उन रजकणो का ही ऐसा स्वभाव है कि उनकी सदा एक अवस्था रूप स्थिति न रहे, इसलिये वे अपने स्वभाव से ही ठण्डी अवस्था को छोडकर गर्म अवस्था रूप परिणमित हुये हैं। इस प्रकार स्वभाव को न देखकर अज्ञानी सयोग को देखता है कि अग्नि के आने से पानी गर्म हुआ। आचार्यदेव ने चार बोलो से स्वतन्त्र वस्तुस्वरूप समझाया

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