Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 237
________________ ( 231 ) है, उसे समझ ले तो कही भ्रम न रहे। एक समय मे तीन काल-तीन लोक को जानने वाले सर्वज्ञ परमात्मा वीतराग तीर्थकरदेव की दिव्यध्वनि मे आया हुआ यह तत्व है और मन्तो ने इसे प्रगट किया है। वर्फ के सयोग से पानी ठडा हुआ और अग्नि के सयोग से गम हुआ ऐसा अज्ञानी देखता है, परन्तु पानी के रजकणो मे ही ठडागर्म अवस्था रूप परिणमित होने का स्वभाव है उसे अज्ञानी नहीं देखता / भाई / वस्तु का स्वरूप ऐसा ही है कि अवस्था की स्थिति एकरूप न रहे। वस्तु कूटस्थ नहीं है परन्तु बहते हुये पानी भाति द्रवित होती है-पर्याय को प्रवाहित करती है, उस पर्याय का प्रवाह वस्तु मे से आता है, सयोग मे से नहीं आता। भिन्न प्रकार के सयोग के कारण अवस्था की भिन्नता हुई, अथवा सयोग वदले इसलिये अवस्था बदल गई-ऐसा भ्रम अज्ञानी को होता है, परन्तु वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। यहाँ चार बोलो द्वारा वस्तु का स्वरूप एकदम स्पष्ट किया है। (1) परिणाम ही कर्म है। (2) परिणामी वस्तु के ही परिणाम है, अन्य के नही। (3) वह परिणाम रूपी कर्म कर्ता के बिना नहीं होता। (4) वस्तु की स्थिति एकरूप नही रहती। -इसलिये वस्तु स्वय ही अपने परिणाम रूप कर्म को कर्ता है-यह सिद्धांत है। इन चारो बोलो मे तो बहुत रहस्य भर दिया है। उसका निर्णय करने से भेदज्ञान तथा द्रव्य सन्मुख दृष्टि से मोक्षमार्ग प्रगट होगा। प्रश्न-संयोग आये तदनुसार अवस्था बदलती दिखाई देती है न? उत्तर-यह बराबर नहीं है, वस्तु स्वभाव को देखने से ऐसा दिखाई नहीं देता, अवस्था बदलने का स्वभाव वस्तु का अपना है ऐसा दिखाई देता है। कर्म का मद उदय हो इसलिये मद राग और तीव्र उदय हो इसलिये तीव्र राग-ऐसा नहीं है, अवस्था एकरूप नही रहती, परन्तु अपनी योग्यता से मद-तीव्ररूप से बदलती है-ऐमा स्वभाव वस्तु का अपना है, वह कही पर के कारण नहीं है।

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