Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 227
________________ ( 221 ) आनन्द परिणाम इत्यादि मे भी ऐसा ही समझना / यह ज्ञानादि परिणाम द्रव्य के आश्रित हैं, अन्य के आश्रित नही तथा परस्पर एक-दूसरे के आश्रित भी नहीं है। गाली के शब्द अथवा द्वेष के समय उसका भान हुआ, वह ज्ञान शब्दो के आश्रित नहीं है और क्रोध के आश्रित भी नही है, उस का आधार तो ज्ञानस्वभावी वस्तु है-इसलिए उनके ऊपर दृष्टि लगा तो तेरी पर्याय मे मोक्षमार्ग प्रगट हो, इस मोक्षमार्गरूपी कार्य का कर्ता भी तू ही है, अन्य कोई नही। ___अहो, यह तो सुगम और स्पष्ट बात है। लौकिक पढाई अधिक न की हो, तथापि यह समझ मे आ जाये ऐसा है। जरा अन्दर मे उतर कर लक्ष मे लेना चाहिये कि आत्मा अस्ति रूप है, उसमे अनन्त गुण हैं, ज्ञान है, आनन्द है, श्रद्धा है, अस्तित्व है इस प्रकार अनन्त गुण है। इस अनन्त गुणो के भिन्न-भिन्न अनन्त परिणाम प्रति समय होते है, उन सभी का आधार परिणामी ऐसा आत्मद्रव्य है, अन्य वस्तु तो उसका आधार नही है, परन्तु अपने मे दूसरे गुणो के परिणाम भी उसका आधार नही है, -जैसे कि श्रद्धा परिणाम का आधार ज्ञान परिणाम नही है और ज्ञान परिणाम का आधार श्रद्धा नही है, दोनो परिणामो का आधार आत्मा ही है। उसी प्रकार सर्व गूणो के परिणामो के लिये समझना / इस प्रकार परिणाम परिणामी का ही है, अन्य का नही। इस २११वे कलश मे आचार्यदेव द्वारा कहे गये वस्तुस्वरूप के चार बोलो मे से अभी दूसरे बोल का विवेचन चल रहा है। प्रथम तो कहा कि 'परिणाम एव किल कर्म' और फिर कहा कि 'स भवति परिणामिन एव, न अपरस्य भवेत्' परिणाम ही कर्म है, और यह परिणामी का ही होता है, अन्य का नही, --ऐसा निर्णय करके स्व-द्रव्य सन्मुख लक्ष जाने से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है। सम्यग्ज्ञान परिणाम हुये वह आत्मा का कर्म है, वह आत्मारूप

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