Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 232
________________ ( 226 ) माने उससे कही सत्य वदल नहीं जाता। कोई समझे या न समझे, सत्य तो सदा सत्यरूप ही रहेगा, वह कभी वदलेगा नहा / जो उसे यथावत् समझेगे वे अपना कल्याण कर लेंगे और जो नही समझेगे उनकी तो वात ही क्या ? वे तो ससार में भटक ही रहे है।। देखो, वाणी सुनी इसलिए ज्ञान होता है न / परन्तु सोनगढ वाले इन्कार करते है कि 'वाणी के आधार से ज्ञान नहीं होता',-ऐसा कह कर कुछ लोग कटाक्ष करते है, लेकिन भाई / यह तो वस्तुस्वरूप है, त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमात्मा भी दिव्यध्वनि में यही कहते है किज्ञान आत्मा के आश्रय से होता है, ज्ञान वह आत्मा का कार्य है, दिव्यध्वनि के परमाणु का वह कार्य नहीं है / ज्ञान कार्य का कर्ता आत्मा है, न कि वाणी के रजकण ? जिस पदाथ के जिस गुण का जो वर्तमान हो वह अन्य पदार्थ के या अन्य गुण के आश्रय से नहीं होता। उसका कर्ता कौन ? -कि वस्तु स्वय / कर्ता और उसका कार्य दोनो एक ही वस्तु मे होने का नियम है, वे भिन्न वस्तु मे नहीं होते। यह लकडी ऊपर उठी सो कार्य है, यह किसका कार्य है ? -कि कर्ता का कार्य, कर्ता के बिना कार्य नहीं होता। कर्ता कौन है ? - कि लकडी के रजकण ही लकडी की इस अवस्था के कर्ता हैं, यह हाथ, अगुली या इच्छा उसके कर्ता नहीं है। ___ अब अन्तर का सूक्ष्म दृष्टात ले-किसी आत्मा मे इच्छा और सम्यग्ज्ञान दोनो परिणाम वर्तते हैं, वहा इच्छा के आधार से सम्यग्ज्ञान नहीं है / इच्छा सम्यग्ज्ञान की कर्ता नहीं है। आत्मा ही कर्ता होकर उस कार्य को करता है। कर्ता के विना कर्म नहीं है और दूसरा कोई कर्ता नही है, इसलिये जीव कर्ता द्वारा ज्ञान कार्य होता है। इस प्रकार समस्त पदार्थों के सर्व कार्यों मे उस पदार्थ का कर्तापना है-ऐसा समझना चाहिए। देखो भाई, यह तो सर्वज्ञ भगवान के घर की बात है, उसे सुनकर सन्तुष्ट होना चाहिए / अहा / सन्तो ने वस्तु स्वरूप समझा कर मार्ग


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