Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 220
________________ ( 214 ) भाव से परिणमन करे उसको परिणाम कहते हैं / परिणाम कहो कार्य कहो, पर्याय कहो या कर्म कहो-वह वस्तु के परिणाम ही हैं। जैसे कि-आत्मा ज्ञानगुणस्वरूप है; उसका परिणमन होने से जानने की पर्याय हुई वह उसका कर्म है, वह उसका वर्तमान कार्य है। राग या शरीर वह कोई ज्ञान का कार्य नही, परन्तु 'यह राग है, यह शरीर है, ऐसा उन्हे जानने वाला जो ज्ञान है वह आत्मा का कार्य है। आत्मा के परिणाम वह आत्मा का कार्य है और जड के परिणाम अर्थात जड की अवस्था वह जड का कार्य है। इस प्रकार एक वोल पूर्ण हुआ। (2) परिणाम वस्तुका ही होता है, दूसरे का नहीं। अब, इस दूसरे बोल मे कहते हैं कि-जो परिणाम होता है वह परिणामी पदार्थ का ही होता है, परिणाम किसी अन्य के आश्रय से नही होता। जिस प्रकार श्रवण के समय जो ज्ञान होता है वह कार्य है-कर्म है / वह किसका कार्य है ? वह कही शब्दो का कार्य नहीं है, परन्तु परिणामी वस्तु जो आत्मा है उसी का वह कार्य है। परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता। आत्मा परिणामी है-उसके विना ज्ञान परिणाम नही होता-यह सिद्धात है। परन्तु वाणी के बिना ज्ञान नहीं होता-यह बात सच नही है। शब्दो के बिना ज्ञान नही होता-ऐसा नही, परन्तु आत्मा के बिना ज्ञान नही होता। इस प्रकार परिणामी के आश्रय से ही ज्ञानादि परिणाम है। देखो, यह महा सिद्धांत है, वस्तुस्वरूप का यह अबाधित नियम परिणामी के आश्रय' से ही उसके परिणाम होते हैं जाननेवाला मात्मा वह परिणामी है, उसके आश्रित ही ज्ञान होता है, वे ज्ञानपरिणाम आत्मा के हैं, वाणी के नहीं। वाणी के रजकणो के आश्रित ज्ञान नही होते, परन्तु ज्ञानस्वभावी आत्मावस्तु के आश्रय स

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