Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 02
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 221
________________ ( 215 ) वे परिणमन होते हैं / आत्मा त्रिकाल स्थित रहने वाला परिणामी है, वह स्वय रूपातर होकर नवीन-नवीन अवस्थाओ को धारण करता है। उसके ज्ञान-आनन्द इत्यादि जो वर्तमान भाव हैं वे उसके परिणाम हैं। _ 'परिणाम' परिणामी के ही हैं अन्य के नही-इसमे जगत के सभी पदार्थों का नियम आ जाता है। परिणाम परिणामी के ही आश्रित होते हैं, अन्य के आश्रित नही होते हैं। ज्ञान परिणाम आत्मा के आश्रित हैं, भाषा आदि अन्य के आश्रित ज्ञान के परिणाम नही है। इसलिये इसमे पर की ओर देखना नही रहता, परन्तु अपनी वस्तु के सामने देखकर स्वसन्मुख परिणमन करना रहता है उसमे मोक्ष मार्ग आ जाता है। __ वाणी तो अनन्त जड परमाणुओ की अवस्था है, वह अपने परमाणुओ के आश्रित है। बोलने कीजो इच्छा हुई उसके आश्रित भापा के परिणाम तीन काल मे नही हैं / जब इच्छा हुई और भाषा निकली उस समय उसका जो ज्ञान हुआ वह ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही हुआ है / भाषा के आश्रय से तथा इच्छा के आश्रय से ज्ञान नही हुआ है। परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के ही होते है, अन्य के आश्रय से नही होते-~-इस प्रकार अस्ति-नास्ति से अनेकान्त द्वारा वस्तुस्वरूप समझाया है / सत्य के सिद्धांत की अर्थात् वस्तु सतस्वरूप यह बात है, उसको पहिचाने विना मृढतापूर्वक अज्ञानता मे ही जीवन पूर्ण कर डालता है / परन्तु भाई / आत्मा क्या ? जड क्या ? उसकी भिन्नता समझकर वस्तुस्वरूप के वास्तविक सत् को समझे बिना ज्ञान मे सतपना नही आता, अर्थात् सम्यग्ज्ञान नही होता, वस्तुस्वरूप के सत्यज्ञान के बिना रुचि और श्रद्धा मी नही होती, और सच्ची श्रद्धा के बिना वस्तु मे स्थिरता रूप चारित्र प्रगट नही होता, शान्ति नही होती समाधान और सुख नही होता। इसलिये वस्तुस्वरूप क्या है उसे प्रथम

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