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भास्कर
[ भाग २
इन अकृत्रिम प्रतिमाओं के अतिरिक्त कृत्रिम प्रतिमायें मनुष्य निर्मित हैं। इस अल्पकाल में सबसे पहले ऋषभदेव के पुत्र प्रथम सार्वभौम सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने जिन - प्रतिमाओं की स्थापना की थी। जिस समय ऋषभदेव सर्वज्ञ तीर्थंकर होकर इस धरातल को पवित्र करने लगे तो उस समय भरतचक्रवर्ती ने तोरणों और घंटाओं पर जिन - प्रतिमायें बनवाकर भगवान का स्मारक कायम किया था? । उपरान्त उन्होंने ही भगवान् के निर्वाणधाम कैलाश पर्वत पर तीर्थकरों की चौबीस स्वर्णमयी प्रतिमायें निर्मापित कराई थीं। जैनशास्त्र का यह कथन प्राकृत - सुसंगत है। मनुष्य - प्रकृति यह है कि वह अपने प्रेमी अथवा मान्यपुरुष का स्मारक - चिह्न अपने नगर और ग्राम में स्थापित करे और उसके मृत्युस्थान पर खासतौर पर चिह्न बना देवे । आज शहरों में राजाश्रों और देशनेताओं की मूर्तियां बनी मिलतीं हैं । और लोग महापुरुषों के तीर्थ -सम पूजते मिलते हैं। भरत महाराज का कार्य भी इसी ढंग का था। तोरणों और घंटों पर जिन प्रतिमायें अङ्कित कराई । प्राचीन भारत में बड़े-बड़े नगर परकोटे से घिरे रहते थे और उनमें तोरण द्वार तथा उनमें लटकते हुए घंटे खास चीज होते थे । इन खास स्थानों पर स्मारक - चिह्न बनाया जाना स्वाभाविक था । उपरान्त जब भगवान ऋषभदेव कैलाश से मुक्त हुये तो उस पवित्र स्थान पर विशेषरूप में जिन प्रतिमाओं का भरतेश्वर ने बनवा दिया । किन्तु इन जिन प्रतिमाओं को बनवाने में मुख्य प्रेरक हृदय की भक्ति थी । और उनके बनवाने का उद्देश्य साक्षात् जिन भगवान् की वीतराग मुद्रा के दर्शन पा लेना था । यही कारण है कि ये प्रतिमायें साधारण नेता आदि मुख्य पुरुषों के स्मारकों से विशेषता रखती थीं और वह विशेषता उनके जिनेन्द्रवत् पूज्य मानने में थी । इस प्रकार जैन शास्त्रानुसार इस काल में जिन प्रतिमा के जन्म का यह इतिहास है ।
मृत्युस्थान को पहले उन्होंने
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अबतक उपलब्ध हुआ भारतीय पुरातत्त्व भी जिन मूर्ति की उपर्युक्त प्रकार बहुप्राचीनता का समर्थन करता है। इस समय सिन्धु की उपत्यका का पुरातत्व सर्वप्राचीन है और विद्वज्जन उससे जिन प्रतिमा का सम्बन्ध स्थापित करते हैं । इस विषय पर हम आगामी एक स्वतंत्र लेख - द्वारा विचार करेंगे। अर्थात् आज से लगभग है हजार वर्ष पहले भी
इससे यह स्पष्ट है
कि बस प्राचीन काल
उपरान्त मथुरा और
जिन - मूर्तियाँ थीं
।
१-८ श्री आदि पुराण देखो ।
Survival of the Prehistoric Civilisation of the Indus valley, pp. 25-83 and Modern Review, August, 1932,