Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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ઉક્ત માગધી લેખક હિંદી ભાષાંતર. देववल्लभो ! जैन मत नास्तिक मत नहीं है. क्यों कि नास्तिक वह होता है, पुण्य, पाप, नरक, स्वर्ग, परलौक, परमात्मा इत्यादिकोंको न माने. परन्तु जैन मत उक्त वार्ता सर्वथा स्वीकार करता है. देखिये, इस विषयमें महानाचार्य श्रुत केवली देशीयाचार्य महामुनि शाकटायन स्वरचित महान् व्याकरणमें क्या लिखते हैं? यथा:
दैष्टिकास्तिकनास्तिकाः ॥ शा० व्या० अ० ३ पा० २ सू० ६१ दैष्टिकादेयष्ठणन्तानिपान्यन्ते । दिष्टि प्रमाणमस्येति दैष्टिकः । अस्ति परलोकादि मतिरस्य आस्तिकः । तद्विपरीतो नास्तिकः
___ इससे सिद्ध हुआ कि जैन मत नास्तिक मत नहीं है, वैसे ही नाही जिन मत अशुचिका मार्ग है; क्योंकि श्रावकोंकी सप्तवीं व्रतमें ऐसा उल्लेख है कि श्रावक विनाप्रमाण उपभोग-परिभोग ना करें, तैसे ही साधु भी निरतिचार क्रिया पालें, और मलादि अशुचिकों दूर करें. प्रमाणार्थे देखो सूत्र 'निसीथजी, जिसमें लिखा है कि यदि मुनि पुरीषके पश्चात् पाणी से शौच ना करे तो उसको मासिक प्रायश्चित्त है; तैसे ही " श्रीस्थानांगसूत्र" में लिखा है कि पाश्च प्रकारसे शौच होती है, जैसे पृथ्वी, पाणी, अग्नि, ब्रह्मचर्य, मन्त्रेति.
किन्तु स्वद्वेषके प्रभावसे लोग क्या? भाषण करते हैं ? यदि श्रीसंघमें तीन ही शाखें प्रेमभावको प्रगट करें, पुनः विद्याकी उन्नति करें, तो क्या जिनमतका पुनरुद्धार तथा उदयभाव ना होगा ? अपितु आवश्यमेव ही होवेगा.
प्रिय धर्माभिलाषियो ! यह समय परस्पर निन्दाका नहीं है तथा द्वेषका नहीं है, अपितु यह समय तो उदय भाव करनेका है. देखिये, जिस समय राज्यकी ओरसे सर्वथा स्वतंत्रता ना थी तिस समय जैन मत कैसी उन्नतिके शिखर पर था ? परन्तु अधुना (वर्तमान कालमें) सर्व प्रकारसे राज्यकी ओरसे स्वतंत्रता है अर्थात् जो चाहें अपने २ धर्मकी वृद्धि कर सकते हैं, किन्तु स्वप्रमादके कारणसे जैन मत अवनतिको प्राप्त हो रहा है. हा शोक ! जिस सिद्धान्तकी विदेशी तथा देशी विद्वान सतत मुखसे महिमा (स्तुति ) करते हैं, उस सिद्धान्तके माननेवाले अवनतिको प्राप्त हों. अधुना श्रीसंघको उचित है कि पुनः ऐसे सत्य सिद्धान्तका पर्ण प्रकारसे प्रकाश करें; और सदाचारका भी प्रचार करें, जिससे आत्मा शुद्ध तथा पवित्र हो.
अथ सदाचारविषय. धर्मात्मा पुरुषो ! सदाचारके बिना कोई भी आत्मा मुक्तिमार्गको नहीं ग्रहण कर सकता. सदाचार शब्द सम्यक् चारित्रका ही वाचक है. पुनः चारित्र