Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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जैन कॉन्फरन्स हरल्ड.
सिवाय बहुतसे ढुंढक साधुओंको भी आपने जैन धर्मकी प्रशस्त नौकाका कर्णधार बनाया!
सत्यही आपके उपदेशका प्रभाव कुछ अलौकिक था ! इसकी कृपासे वर्षों से लगे हुए हृदय मंदिरोंके विकट ताले खुलगये, कपाटोंकी प्रौढ़ सांकले समूलोन्मूलित होकर गिरपडी, जैन धर्मकी अमली सूरत नजर आनेलगी, इसके बदनकी झुरडियां दूर होगई चेहरेपर आसमानी नूर टपकने लगा, सचमुचही जैनधर्मकी कायाको आपने एकदम पलट दिया! पाठकोंको इतना और भी स्मरण रहेकि, अमृतसर, होशियारपुर, अंबाला प्रभृति शहरों में आपके सदुपदेशसे बनेहुए जैन मंदिरोंकी प्रतिष्ठाके समय आपके पधारने पर वहांके लोगोंने जो उल्साह प्रगट कियाथा वह लेखिनीसे बाहिर है !
विक्रमाष्द १९५३ ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीयाको आप गुजरांवालामें पधारे। क्योंकि, इसनगरकी शोभाको वढ़ाये आपको बहुत समयहो चुकाथा आपके स्वागतके लिये यहांके निवासियोंकी प्रेमभरी प्रार्थनायें भी बहुत आचुकी थी. इनलोगोंसे बहुत समय पहिले आपने यह भी कहरखाथाकि, अंतमें सर्वदा हमने आपलोगेंकेही पास निवास करना है ! निदान महात्माका यह वाक्य सत्यही पाषाण रेखाकी उक्तिसे उपमित हुआ! गुजरांवालामें आते समय मार्गमें आपको ज्वर सा आने लगगया था. आपको स्वाग. तसे इन लोगोंको जो आनंद हुआ वह सर्वथा अवर्णनीय था! इनके उत्साहकी उमंगोंका आज कुछ पारावार नहीं था! परंतु यह उमंगें शीघ्र ही नाश होनेवाली हैं ऐसा जान प्रकृति इनके भाग्यकी खूब हँसी उडातीथी। हंत । विधाताने इनके प्रारब्ध कर्मका चित्र कहीं निरालेमे ही बैठ कर खेंचाथा ।।' एक तर्फ तो देवलोकसे वहती हुई सुर धुनी की निर्मल धारामें स्नान करनेका सौभाग्य इन वराकोंको प्राप्त हुआ है, दुसरी तर्फ दुःखकी घोर वृष्टी करनेके लिये विरहके भीषण बादल चारों तर्फसे इनके शिरपर घिर रहे है।
“अन्तिम उपदेश” नगरमें प्रवेश करनेके अनंतर शरीरके शिथिल होने परभी आप धर्मोपदेशसे नहीं रुके । सभ्यमंडलके योग्यता पुरस्सर बैठ जानेके बाद आप देव, गुरु और धर्मके गुह्य रहस्यों का सारगर्भित विवेचन करने लगे, यह आपका भारतर्वषके लिये अंतिम उपदेश है। प्यारे पाठको। आपके सदुपदेश रूपविणाकी ध्वनी संभव है कि, फिर भारतके सौभाग्यमें न होगी। जैन बांधवो । चेतो। अब चेतनेका समय है, शायद है. कि, फिर ऐसा ब्रह्मनाद आपके कर्णरंध. तक न पहुंचे। उठो। परलोक यात्राके लीये कुछ पाथेय बांधलो ! क्या मालूम ! ऐसा सुलभ समय फिर न