Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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જૈન કન્ફન્સ હૈ. द्वि प्रकारका होता वैः सर्वचारित्र और देशचारित्र. सर्वचारित्र, साधुसाध्विओंका होता है, जैसे कि पाश्च महाव्रत रात्रिभोजन त्याग, दश श्रमण धर्मेति. अन्यच्च, देशचारित्र, श्रावकों और श्राविकाओका होता है, जिसमें सात व्यसनोंको वर्जना तथा द्वादश व्रतको धारण करना वा एकादश प्रतिमा (कठिन नियम और प्रतिज्ञा)
और एकविशंति गुणोंको अनुकरण करना, पुनः अन्यायके साथ वर्ताव ना करना, क्यों कि गृहस्थ धर्म ( द्वादश व्रत ) का मुख्य सिद्धान्त न्याय ही है. देखिये, श्री शान्तिनाथजी श्री कुन्थुनाथजी श्री अरनाथजी चक्रवर्ति हो कर पुनः तीर्थकर पद्वीको भोग कर न्यायके साथ विचरते हुए मोक्षको प्राप्त हुए. तैसेही भरत चक्रवर्ति भी न्याययुक्त होते हुए केवल ज्ञान उपार्जन कर मोक्षको प्राप्त हुए परन्तु अन्याय करनेवालों की दशा मृगापुत्रवत् होती है.
प्रियवरो! यदि इस समयमें भी धार्मिक परिश्रम ना किया, तो फिर और कौनसा समय इससे उत्तम आपको प्राप्त होगा?
हे वीरपुत्रो ! घोरनिद्राको छोड कर धर्मार्थे उद्यम करो. देखिये, भगवान का पूर्वोक्त तीन प्रकारका धर्म है. (अर्थात् मोक्षके तीन ही द्वार (मार्ग) हैं) यथा. ___" सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः"
विद्यासे सुध्यान होता है और सुध्यानसे सुतप उत्पन्न होता है; और तीनोंको आराधन करके (भलि भांति पाल कर) जीव मोक्षके योग्य होते हैं.
जैन मत पदार्थविद्याका भी यथातथ्य स्वरूप वर्णन करता है, जैसे संसारस्वरूपको ही लीजिये, जो कदाचित् शाश्वत वा कदाचित अशाश्वत है. द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा शाश्वत (नित्य ) है और वर्ण, पर्याय, करके तथा गन्ध, रस, स्पर्श पर्यायसे अशाश्वत है. देखिये कैसा सुन्दर मनमोहन न्याय है ! इसका सविस्तर स्वरूप देखो “ सप्तभङ्गतरङ्गिणि, " " तत्त्वार्थसार, " " आलापपद्धतिः" इत्यादि न्यायग्रन्थोसे.
हे मोक्षेच्छको ! मेरी यही आकांक्षा है कि पक्षपातको छोड कर धर्माश्रित होवो ! तीन ही शाखोंसे द्वेषभाव नष्ट होवो ! श्री जिनेन्द्र देवके प्रभावसे तीन ही शाखोंमें परस्पर प्रेम भाव उत्पन्न होवो ! जिसके प्रभावसे श्री अनेकान्तमत ( जैनमत ) सदैव काल जयविजय को प्राप्त करे, बहुतसे जीव मोक्षमार्गके योग्य होवें.
जिनेन्द्र देवकी कृपासे श्री संघमें सदैव ही शान्ति तथा परस्पर प्रेम भाव प्रगट हो!