Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1913 Book 09
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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ઉક્ત માગધી લેખક હિંદી ભાષાંતર.
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नामको पुनः २ उच्चारण करते थे अथवा सर्वस्थानोपरि “ अरिहंत २" शब्द श्रवण होते थे. अनेक राजा महाराजा जैनधर्मानुयायी होते हुए इसके प्रचारमें सदैव कटिवद्ध थे, पुनः स्वआयुको धर्म पर अर्पण करते थे. आचार्य अपने २ गण ( गच्छ ) की वृद्धिकारक थे. शतसहस्रलक्षकोटि मुनि नूतन २ ज्ञानसम्पन्न ग्रन्थ रचते थे. और देशदेशान्तरों में सम्प (प्रेम ) था. पुनः जयजिनेन्द्र शब्दका उच्चारों ओर महाध्वनीके साथ नाद होता था.
___ इस समय प्रथम तो जैन मत ही स्वल्पः पुनः अल्पमें भी मतभेद तथा क्रियाभेद बहुत हैं और एक पक्ष द्वितीय पक्षकी निन्दार्थे सदैव उद्यत रहता है. कैसा कष्टका समय है ! वर्तमान समय शीघ्रही प्राग्वत हो ! जिससे पूर्व समय अर्थात् जिस समय जिन धर्मका पूर्ण प्रकाश था वह समय प्रगट होवे. और जैन जाति महानिद्रासे उठ कर स्वधर्मके प्रचारार्थ आरूढ होवे, प्राग्वत् जैन धर्मका परमोद्योत होवे.
. हे देवतोंके पियो : ईर्षा और द्वेषको त्याग कर उववृह ( गुणोंकी वृद्धि करना ) गुण प्रगट करो; क्यों कि यावत् काल प्रेमभावके साथ धर्म पर आयु अर्पण नहीं होती, तावत्काल धर्मका उदय भाव होना भी असम्भव ही है. मुनियों तथा साध्वियोंको भी उचित है कि स्वस्वविवादको छोड कर प्रायः मुख्य समाचारी एक करें; क्यों कि एक *समाचारीसे क्लेशोत्पन्न नहीं होता; पुनः ईर्षा, द्वेषभाव, पिशुनता इनको छोड कर सदैव काल शान्ति व प्रेमभावका पुनः २ उ पदेश करें, अतः ऐसे कार्यकरें, जिनसे जैनमतकी प्रभावना हो.
सज्जनो ? देखिये स्वनिन्दाके प्रभावसे जिनमतका कैसा स्वरूप हो गया है कि इसके माननेवालोंकी संख्या अनेक कोटि संख्यासे न्यून होते २ अनुमान त्रयोदशलक्ष चौतीस सहस्र हो गई. क्या एतादृश समय देख कर तुम्हें आश्चर्य नहीं होता ? प्रियमित्रो : यह किसका फल है ? परस्पर द्वेषका और प्रेमभावके ना होनेका.
महान् आश्चर्यकी वात है कि प्रायः चारों तीर्थ ( साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका ) प्रतिक्रमण वा आवश्यकके समय प्रतिदिन उभय समय ऐसी गाथा पठन करते हैं, यथाः--
* यथा चौमासी (चतुर्मासी ) पर्व संवत्सरी पर्व, पर्युषण पर्वेत्यादि. क्यों कि इनको भिन्न २ मनानेसे अन्यमताऽध्यक्षोंको शंका पड जाती है तथा जिन मतका अपवाद होता है.