Book Title: Jain Satyaprakash 1937 11 SrNo 28
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१२०] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष २. आ०गुणभद्रने आदिपुराणके ही शेष १६२० श्लोक बनाये, १२००० लोक प्रमाण ४७ पर्वमें आदिनाथपुराण समाप्त हुआ। बाद में ८००० श्लोक प्रमाण उत्तरपुराण ( २३ तीर्थकर व चक्रवर्तिका चरित्र ) भी बनाया । इन आदिपुराण और उत्तरपुराणके जोडका ही नाम “महापुराण" है जिसकी समाप्ति शक सं० ८२० वि० सं० ९५५ में हुई है । दिगंबरीय मतानुसार वि० सं० ९५५ में न गणधरकृत आगम थे, न पूर्व थे, न दृष्टिवाद था, न दृष्टिवादके तीसरे हिस्सेका तीर्थंकर चरित्र था, वि० सं० ३०५ में ही तीर्थकरचरित्र विनष्ट हो गये थे, और ये आचार्य भी न सातिशय ज्ञानवाले थे, अतः यहां प्रश्न उठता है कि इन आचायोंने महापुराणका मसाला कहांसे प्राप्त किया ? जांच पडताल के बाद सप्रमाण कहा जाता है कि- महापुराणकी रचनामें काणभिक्षुका कथाग्रन्थ ( आदि० उत्थानिका श्वोक ५१ ), कवि परमेश्वरकृत पुरुचरित्र ( आदि० उ० श्लो० ६०, आदि० प्रशस्ति श्लो०१६ ), आ० जटिलकृत वरांगचरित्र और वाल्मीकी रामायण इत्यादि ग्रन्थों का सहारा लिया गया है। साफ साफ कहना चाहिये कि - आचारांगसूत्र भावनाध्ययन, श्रीकल्पसूत्र और आवश्यक निर्युक्ति इत्यादि श्वेतांबरीय साहित्यकी सरासरी नकल करडाली है । वरांगचरित्र भी श्वेतांबर ग्रन्थ है और वह उस समयका श्रेष्ठ संस्कृत ग्रन्थ है । देखिएः जेहिं कए रमणिजे, वरंग - पउमाणचरियवित्थारे ॥ कहवण सलाहणिजे, ते कइणो जडिय - रविसेणो ॥ -आ० उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला ( इ० ७७८ ) वरांगनेव सर्वाङ्गैर्वरांगचरितार्थवाक् ॥ कस्य नोत्पादयेद् गाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥ ३५ ॥ -आ० जिनसेनकृत हरिवंशपुराण परि० ( इ० स० ७८३) काव्यानुचिंतने यस्य, जटाप्रबलवृत्तयः । अर्थान् स्माऽनुवदन्तीव, जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥ ५० ॥ -आ० जिनसेनकृत आदिपुराण अ० १ इ. स. ८३८) मुणि महसेणु सुलोयणु जेण, पउमचरिउ मुणि रविसेणेण । जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिलमुणिणा वरंगचरितु || - कवि धवलकृत अपभ्रंश हरिवंश ( इ. स. ११वीं शताब्दी ) वरांग चरित्रकी ताडपत्र पर शक सं. १६५८ में लिखी हुई सीर्फ एक प्रत कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन मठमें सुरक्षित है । जिसके १४८ पत्र हैं । सार्थक नामवाले ३१ अध्याय हैं, प्रथम अध्याय वसन्ततिलिकामें है । केवल For Private And Personal Use Only

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