Book Title: Jain Satyaprakash 1937 11 SrNo 28
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरतर गच्छीय दो आचार्यों के रासोंका ऐतिहासिक सार लेखक:-श्रीयुत अगरचंदजी भंवरलालजी नाहटा प्रस्तुत लेखमें पू. श्रीजिनचन्द्रमरिजीके पट्टधर श्रीजिनसिंहसरिजी एवं उनके पट्टधर श्रीजिनराजमृरिजीके दो ऐतिहासिक रासों का सार दिया जाता है। श्रीजिनसिंहसरिजीका परिचय हमने यथाप्राप्त साधनोंसे युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि ग्रन्थके पृ० १७४से १८१में दिया था। प्रस्तुत रास हाल ही में हमें उपलब्ध हुआ है। एवं श्रीजिनराजमूरिजीका ऐतिहासिक रास “मुनि श्रीसारकृत" हमने अपने संपादित “ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह "के पृ० १५० से १७७ में प्रकाशित किया है। और उसका ऐतिहाक सार भी उक्त ग्रन्थके सारविभागमें पृ० २२ से २६ में दिया है। पर इसके बाद कतिपय विशेष ऐतिहासिक वर्णनवाला ये जयकीर्तिकृत रास + हाल ही में उपलब्ध हुआ है। ये दोनों रास दोनों आचार्यों की विद्यमानतामें ही रचे हुए हैं, अत एव इन आचार्यों का पूरा जीवनचरित्र इसमें नहीं आया, अतः इन दोनों आचार्योंके जीवननी अवशिष्ट मुख्य मुख्य बातें नीचे लिखी जाती है। श्रीजिनसिंहमूरिः-जन्म सं. १६१५ मा. सु. ५ (१५)। दीक्षा सं. १६२३ बीकानेरमें, दीक्षा महोत्सव भांडाणी नींबड़ने किया। वाचक पद सं. १६४० मा. सु. ५ जेसलमेरमें, महोत्सवसे कुशलाने किया। भट्टारक पद सं. १६७० मा. सु. १० विलाडानगरमें मिला। सं. १६७४ पो. सु. १३को मेडतामें स्वर्गवासी हुए। विशेष परिचय “युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि "में प्रकाशित हो जानेके कारण यहां नहीं लिखा गया। श्रीजिनराजसूरिः-श्रीसारकृत रासमें आपने स्थानांगसूत्र पर विषम पदार्थ प्रकाशिनी वृत्ति बनाने का उल्लेख है। पर यह वृत्ति कहीं उपलब्ध __ *इस रासका रचना-काल भी संवत् १६८१ है एवं इसकी प्रति का प्रथम पत्र उपलब्ध नहीं होनेसे आदिकी कई गाथाएं त्रुटक रह गई हैं । संयोगवश श्रीकीर्तिकृत रासकी प्रतिका प्रथम पत्र भी अनुपलब्ध होनेसे ३५ गाथाएं नहीं पाई गई। इन दोनों रासों की प्रतिएं किसी महाशयको अन्यत्र प्राप्त हों तो कृपया हमें सूचित करें। + इस कविके स्वयं लि० पत्र २ से ८ (गा. २५५) की प्रति हमारे संग्रहमें है, पुष्पिका लेख इस प्रकार है: कृतश्च पंडितजयकीर्तिगणिना श्रीजेसलमेरनगरे ॥ शुभं भवतुः लेखकपाठकयोः लिखितोयं श्रीजेसलनगरे ॥ श्री स्तात् ।। For Private And Personal Use Only

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