Book Title: Jain Satyaprakash 1937 11 SrNo 28
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ ] ૫૦ ઈન્દ્રચ’દ્રસે [१५१] दिगम्बर मतकी उत्पत्ति, इस अभिमान व एकान्त वादका ही परिणाम है। प्रो० आ० ने० उपाध्ये M. A. दिगम्बर विद्वान भी लिखते हैं कि- आचार शास्त्रमें वर्णित उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साधु समुदायके इस श्रमसाध्य प्रबन्धने मतभेदके लिये बडा अवसर दिया, जब किसी प्रधान आचार्यका स्वर्गवास हो जाता था तब सर्वदा संघ में फूट पडनेका भय बना रहता था ! दिगम्बर संप्रदाय में संघभेद होनेका यही मुख्य कारण है। इसके सम्बन्धकी घटनाओंको जाननेके लिये पुरातत्त्व संग्रहका ( Epigraphical Records ) सावधानी से अध्ययन करनेकी आवश्यकता है । - जैनदर्शन, व० ४, अं ७, पृ० २९१ दिगम्बर संघका प्रारंभ से आज तकका यह इतिहास - सार है । पंडितजी इसे तो अग्राह्य मानते ही नहीं । यद्यपि दि० विद्वान् श्वे० उत्सर्ग और अपवाद पर आक्षेप करते हैं किन्तु दि० मुनि भी अपवाद और प्रायश्चित्तसे पर नहीं हैं। जैसेकी दि० छेदपिंडमें उल्लेख है हि-जंतारूढो जीणि अफुसंतो (४९) अण्णेहिं अमुणिदं मेहुणं (५१) परेहिं विण्णादमेकवारम्मि (५२) इंदय खलणं जायदि (४८) दिनशयन (६०) रतीप चरिया ( ७२ ) सूर्योदये आहार (७३) वगैरह । इन पाठोंका अर्थ नहीं करना ही अच्छा है। पंडितजी इन पाठोंको सोचे बादमें देखे कि दि. साहित्यमें कितनी शिथिलता है । ऐसी स्थिति में हरएक धर्मको उत्सर्ग अपवाद और प्रायश्चित्त अनिवार्य ही हो जाते हैं। दिगम्बरोंने स्त्रीसमाजके लिये अवेदी तीर्थकरकी अंगपूजा पापरूप मानी है जबकि दिगम्बर मुनिकि चरणपूजा, स्पर्श, वस्त्रसे देहप्रोक्षण और शुश्रुषा वगैरेह लाभरूप माने हैं। दि० मुनिओने जिनागमको छोड़कर यह लाभ उठाया। इससे अधिक कौनसी शिथिलता हो सकती है। दिगम्बरी मुनि सिर्फ वस्त्रके लिये अपरिग्रही बनते हैं। इसके अलावा वे मठ, गांव, गद्दी और धनको बडे चांवसे जमा करते हैं । दिगम्बरीय शिलालेख, ताम्रपत्र और दानपत्र से इसके अनेक प्रमाण पाये जाते हैं, जैसेकी कलि आचार्य के शिष्य विजयकीति, उसके शिष्य अर्ककीर्तिको उनके मठके लिये दान दिया। जो नन्दीगण और पुन्नाग मूल संघके अनुयायी यापनीय थे वगैरह । - जैनदर्शन, व० ४, अं ७, पृ० २९४ For Private And Personal Use Only

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