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(१५२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[१६३ दि० विद्वान् बनारसीदासजी भी बताते हैं कि
“माया त्यागी होई जो दानी कहई गोरख तीनों अज्ञानी ॥" तेरापंथी दिगम्बर काव्य वस्थाग्रन्थ, पं. पन्नालालजी सिंधीकृत “विद्वदुजनबोधक" पृ. १७६ में रात्रिभोजी दिगम्बर मुनिओंको निर्ग्रन्थ बताये हैं। दिगम्बरीय छंद शास्त्रमें भी दि. मुनिओंको रात्रि भोजनके प्रायश्चित्त हैं, जैसेकि
रत्ति गिलाणभत्ते चउवीह (गा. २९)
टीका-रात्रौ व्याधियुते चतुर्विधाहारे षष्ठं++रात्रौ चर्याप्रविष्टः मूल गच्छति, न तस्य पंक्तिभोजनमिति ।
यहां प्रश्न यह होता है कि-दिगम्बर मुनि वस्त्र या पात्रको रखते ही नहीं फिर आहार कैसे करते होंगे? इस विचारणामें उनकी शिथिलता का पूरा पता लग जाता है। मानना पडेगा कि उन्हें रात्रिको भी आहार प्राप्ति बिना पात्र भी आसान होती होगी। टीकाकारने और भी एक महत्त्व की बात लीख दी है कि-दिगम्बर मुनि रात्रिको आहार करे, किन्तु आहार के निमित्त गावमें जाय तो मूलच्छेद करना और उसको पंक्तिभोजन से बहार कर देना ।
पाठक समज गये होंगे कि-दिगंबर मुनि दिनको गाव में आहार के लिए जाते हैं, भिन्न भिन्न घर में अलग अलग खडे हो कर आहार लेते हैं जब कि वे अपने स्थान में रातको आसानी से आहार पा सकते हैं और साथ साथ में पंक्तिभोजन के नियम में भी व्यवथित रहेते हैं। खेर ।
दिगम्बर समाजके इन अग्राह्य-ग्रहण प्रमाणों से पं० इन्द्रचन्द्रजीका जी भर जायगा। यदि कुछ शेष रह गया हो और पंडितजी पूछेगे तो उनको और और भी प्रमाण सूनने का नसीब हो जायगा ।
पंडितजी औरोंको अन्ध श्रद्धा छोडने की शिक्षा देते हैं (पृ० ४७२) किन्तु मैं तो पंडितजी से सप्रेम सूचन करता हूं कि-वो भ० महावीरस्वामीके १३०० वर्षके बाद बनाये हुए दिगम्बरीय शास्त्रोंको “वीरवाणी" मानने के अभिनिवश को हटाकर दि० शास्त्रकों पढ़े उन्हें स्वयं ज्ञात हो जायगा कि वे कैसी दयनीय दशा में खडे हैं।
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