Book Title: Jain Satyaprakash 1937 11 SrNo 28 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४] દિગમ્બર શાસ્ત્ર કેસે બને? [१२१] दो काव्य पुष्पिताग्रामें हैं, विशेष अध्याय व लोक उपजातिमें हैं और जिसमें करीब करीब प्रचलित सभी छंदके काव्य हैं। इसके उपरसे कवि वर्धमान और पं. धरणीने वरांगचरित बनाये मिलते हैं । वरांगचरित्रका मंगलाचरण इस प्रकार है अर्हस्त्रिलोकमहितो हितकृत् प्रजानाम् , धर्मोऽर्हतो भगवतस्त्रिजगच्छरण्यः । ज्ञानं च यस्य सचराचरभावदर्शि, रत्नत्रयं तदहमप्रतिम नमामि ॥ १ ॥ -प्रथमाध्याय, श्लो. ७०के अंतमेंइति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते, स्फुटशब्दार्थमंदर्भ वरांगचरिताश्रिते जनपद-नगर-नृपति-पत्नी-वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥ इस वरांगचरित्रको देखकर शोलापुरके पं. जिनदासने एक प्रश्न उठाया है कि___“जटिल कवि श्वेताम्बर थे या दिगम्बर ? वरांगचरितमें हम देखते हैं कि वरदत्त गणधर एक पत्थरके पाटिये पर बैठकर धर्मोपदेश करते हैं, यह दिगम्बर सिद्धांतके विरुद्ध है । उनके मतानुसार केवली समवशरण या गन्धकुटीमें विराजमान रहते हैं। आगे स्वर्ग भी बारह ही बतलाये हैं, जबकि दिगम्बर सम्प्रदायमें सोलह स्वर्ग माने गये हैं। -जैनदर्शन, व. ४, अं. ६, पृ. २४६ की फूटनोट । इसके अलावा वरांगचरित्र, अ. १ में १५वा प्रलोक है कि मृत्-चालिनी-महिष-हंस-शुक-स्वभावा मार्जार-कङ्क-मशका-ऽज-जलूक-साम्याः ॥ सच्छिद्रकुम्भ-पशु-सर्प-शिलोपमाना स्त श्रावका भुवि चतुर्दशधा भवन्ति ॥ १५ ॥ नन्दीसूत्रमें श्रोताओं (श्रावकों) के लक्षण स्पष्ट करने के लिये "सेलघण" इत्यादि दृष्टांत दिये हैं । प्रस्तुत प्रलोक ठीक उसीका ही संस्कृत अनुवाद है । इससे भी आ. जटिल श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं । आ. जिनसेनने इस प्रलोकके कथनको उठाकर आदिनाथपुराणके प्रलो. नं. १३९ में संगृहीत कर लिया है, और मंत्री चामुण्डरायने तो चामुण्डपुराणमें इसको ज्योंका त्यों ही उठा लिया है, जिसमें “चालनी" के स्थान सीर्फ " सारणि " ( झाडू) ऐसा पाठान्तर लिखा गया है । प्रो. आ. ने. उपाध्ये M. A. विस्तृत विचारणा करके साफ साफ बताते हैं कि For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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