Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ ॐ नमोऽर्हद्भ्यः न्यायप्रकाशिकाव्याख्यायुता जैनन्यायपञ्चाशती (१) प्रदीपोपमे न्यायशास्त्र सरलतया तत्त्वबुभुत्सूनांप्रवेशं कामयमान आचार्यो जैनन्यायपञ्चाशतीनामक ग्रन्थमारभमाणस्तत्र निखिलप्रत्यूहप्रतिबन्धकं मङ्गलमाचरति न्यायशास्त्र प्रदीप के समान प्रकाशक है। तत्त्वजिज्ञासुओं के सरलता से प्रवेश के लिए तथा उसमें समस्त विघ्नों के निवारण के लिए ग्रन्थकार आचार्य 'जैनन्यायपञ्चाशती' नामक ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगलाचरण कर रहे हैं येनार्पिता विलसति शारदा हृदयाङ्गणे। तामेवाहमुपयुञ्जे श्रित्वा तं तुलसी स्मृतौ॥१॥ जिनके द्वारा प्रदत्त सरस्वती मेरे हृदयांगण में विलास कर रही है, मैं उन आचार्यश्री तुलसी का स्मरण कर उसी शारदा का उपयोग कर रहा हूं। न्यायप्रकाशिका ... येन मदीयेन गुरुणा आचार्यश्रीतुलसीमहाभागेन अर्पिता-कृपया सन्निधापिता स्थिरीकृतेति भावः, शारदा-सरस्वती मम हृदयाङ्गणेहृदयमेवाङ्गणम् हृदयाङ्गणम्, तस्मिन् विलसति-उल्लसति, तत्र कृताधिवासेति भावः। तं तुलसीं गुरुं स्मृतौ श्रित्वा-आश्रित्य तां शारदामेव उपयुञ्जेउपयुनज्मि, तस्याः शारदाया उपयोगं करोमीति भावः । अत्र हृदयेऽङ्गणत्वारोपात् रूपकालङ्कारः। शारदाया विलासोपयोगित्वेन हृदयस्याधिष्ठानत्वमुचितमिति कृतस्तत्र तदारोप इति भावः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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