Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 128
________________ जैनन्यायपञ्चाशती शब्द २४. प्रमाता २५. प्रमिति २६. प्राप्यकारी २७. अनवस्था २८. औपचारिकः २९. स्वप्रकाशः ३०. व्यभिचारी ३१. अव्यभिचारी ३२. पद्धति ३३. कारकसाकल्यम् ३४. ज्ञानान्तरम् ३५. प्रण ३६. सन्निकर्षः ३७. चित् ३८. गवेषणा ३९. व्यवसायः ४०. अनुव्यवसाय ४१. विनिगामनाविरह ४२. प्रकार: ४३. व्याञ्जनावग्रहः ४४. अर्थावग्रह ४५. प्रतियोगिता ४६. अनुयोगिता ४७. समवय सम्बन्धः Jain Education International ज्ञाता ज्ञान यथार्थ से सम्पर्क करके उसका बोध कराने वाली इन्द्रिय दोषः अनिर्णय की स्थिति आरोपित जो स्वयं प्रकाशित है अर्थ दोषयुक्त दोष रहित (निर्दोष) रीति सारे कारकों का एकत्र होना दूसरे ज्ञान तरीका सम्बन्ध ज्ञान खोजना - ज्ञान ज्ञान का ग्रहण करने वाला दूसरा ज्ञान एक पक्ष को सिद्ध करने वाली युक्ति का अभाव । विशेषण (न्याय मत) के अनुसार इन्द्रिय का विषय से सम्पर्क होने पर वस्तु का अव्यक्त ज्ञान । द्रव्य, गुण आदि कल्पना से रहित अर्थ का ज्ञान जैसे यह कुछ है। जिसका अभाव बोला जाय वह प्रतियोगी । उसका धर्म प्रतियोगिता । अभाव का अधिकरण (जैसे भूतल ) नित्य सम्बन्ध जो इस प्रकार होता हैजातिवाचक, गुण गणी, अवयव, अवयवी । - 111 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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