Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 29
________________ 12 जैनन्यायपञ्चाशती सांख्यदर्शन में ज्ञान का प्रामाण्य और अप्रामाण्य-दोनों स्वतः ही होते हैं। अन्यथा ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए अन्य ज्ञान की अपेक्षा होने से अनवस्था दोष का प्रसंग आ जाता है। बौद्ध ज्ञान के अप्रामाण्य को स्वतः और प्रामाण्य को परतः मानते हैं। जैनदर्शन प्रामाण्य को स्वतः और परतः दोनों स्वीकार करता है। अभ्यासदशा में प्रामाण्य स्वतः होता है और उससे भिन्न अवस्था में वह परतः होता है। - अनभ्यासदशा में होने वाले ज्ञान का प्रामाण्य परतः कैसे होता है, इस जिज्ञासा में यह जानना चाहिए कि वहां जिस विषय का ज्ञान होता है उस ज्ञान का अव्यभिचरितत्व (यथार्थत्व) जब तक निश्चित नहीं होता तब तक उसका प्रामाण्य कैसे निश्चित हो सकता है? उसका अव्यभिचरितत्व तब ही विदित होता है जब पूर्व ज्ञान से गृहीत विषय का ग्राहक संवादी दूसरा ज्ञान वहां हो। इस प्रकार संवादक दूसरे ज्ञान से पूर्व ज्ञान का प्रामाण्य गृहीत होता है। अथवा अनभ्यासदशा में होने वाले प्रत्यक्ष का गृहीत विषयं यदि अर्थक्रियाकारी होता है तब उस ज्ञान का प्रामाण्य कहा जा सकता है। अथवा अनभ्यासदशा में होने वाले ज्ञान से गृहीत विषय यदि उस ज्ञान का नान्तरीयक हो अर्थात् उस ज्ञान के बिना उसकी प्रतीति न होती हो तो उस विषय के द्वारा उस ज्ञान का प्रामाण्य कहा जा सकता है। ग्रन्थकार का भी यही अभिमत है। (७) बाह्यवस्तुनः सत्तां स्वीकुर्वतां सौत्रान्तिकबौद्धानां मते वस्तुनः समुत्पन्नं ज्ञानं वस्त्वाकारतामुपैति। तत एव वस्तूनि प्रकाशयति। यद् ज्ञानस्य कारणं न भवति तद् ज्ञानस्य विषयोऽपि न भवति। इदं तदुत्पत्तितदाकारतामतं निराकर्तुमुपक्रमते-बाह्य वस्तु की सत्ता को स्वीकार करने वाले सौत्रान्तिक बौद्धों के मत में वस्तु से उत्पन्न होने वाला ज्ञान वस्तु के आकार वाला हो जाता है। उसी से वस्तुएं प्रकाशित होती हैं। जो ज्ञान का कारण नहीं होता वह ज्ञान का विषय भी नहीं बनता। तदुत्पत्ति तदाकार के इस मत का निराकरण करने के लिए कारिका लिखी जा रही है यथा दीपो घटाद्यर्थान् भासयन्न तदात्मकः। तथैव ज्ञानमप्यर्थान् ज्ञात्वापि न तदात्मकम्॥७॥ जैसे दीपक घटादि पदार्थों को प्रकाशित करता हुआ तदात्मक़-घटादिरूप नहीं हैं वैसे ही ज्ञान पदार्थों को जानता हुआ भी तदात्मक-पदार्थात्मक नहीं होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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