Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ 52 जैनन्यायपञ्चाशती श्रुतज्ञान जो शब्दात्मक होता है उसका एक ही भेद आगम है। वह आगम सप्तभंगी और नय से युक्त होता है। इसका तात्पर्य यह है कि सप्तभंगी और नयये दोनों आगमप्रमाण से पृथक् नहीं है। आगमप्रमाण में ही इन दोनों की भी गणना करनी चाहिए। .. अब यह विचार किया जाता है कि शब्द से अर्थ का बोध कैसे होता है? वह शब्द सहजसामर्थ्य और समय-इन दोनों के द्वारा अर्थ का बोध कराता है। सहजसामर्थ्य का अर्थ है-शब्द के अर्थ की प्रतिपादिका शक्ति। इसका नाम योग्यता है। समय का अर्थ है-संकेत। यहां यह जानना चाहिए कि शब्द में अर्थबोधिका शक्ति रहती है। जिस शब्द में जिस अर्थ को बताने की शक्ति रहती है उस शब्द से उसी अर्थ का ही बोध होता है। इसलिए सभी शब्दों से सभी अर्थों का बोध नहीं होता। जिस अर्थ की बोधिका शक्ति जिस शब्द में गृहीत होती है उस शब्द को सुनने पर जिस व्यक्ति को उस शक्ति का ज्ञान है वही पुरुष उस शब्द का अर्थबोध करता है, अन्य नहीं। जिस व्यक्ति को शक्तिज्ञान नहीं है अथवा जिसका शक्तिज्ञान विस्मृत हो चुका है उसे शब्द से अर्थ का बोध नहीं होता। यह अर्थबोधिका शक्ति शब्द की सहजा शक्ति है। इस शक्ति से शब्द अर्थ को उसी प्रकार बताता है जिस प्रकार इन्द्रियां अपने-अपने विषय को बताती हैं। योग्यता की भांति संकेत भी अर्थ के बोध में उपयोगी होता है। इस पद से इस अर्थ को समझना चाहिए कि यही संकेत की परम्परा है (जैसे-सहकारपद से आम्रवृक्ष को जानना चाहिए)। वास्तव में तो संकेत ही शब्दशक्ति का ज्ञान कराकर अर्थ का बोध कराता है। वह संकेत व्याकरण, उपमान, कोश और आप्तवाक्य से जानना चाहिए। कारिकाकार ने परोक्षज्ञान के मति और श्रुत-ये दो भेद प्रतिपादित किए हैं। उनमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान-ये चार भेद मतिज्ञान के हैं। श्रुतज्ञान का एक ही भेद आगम है। विज्ञजन आगम को पौद्गलिक, शब्दात्मक अर्थबोध का हेतु मानते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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