Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 123
________________ 106 जैनन्यायपञ्चाशती लक्षणाभास कहा जाता है। लक्षणाभास का अर्थ है-जिस लक्षण में दोष हो अथवा दोषयुक्त लक्षण। - लक्षणाभास के तीन भेद होते हैं-अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभवी। इनमें अव्याप्त लक्षणाभास वह होता है जो लक्ष्य के मध्य किसी एक लक्ष्य में ही जाय, सभी में न जाय। जैसे पशु का लक्षण यदि विषाणीत्वम् किया जाय तो यह लक्षण सींग वाले पशु गाय भैंस में चला जायेगा, किन्तु हाथी, घोड़ा आदि सींग विहीन पशु में नहीं जायेगा। लक्षण के लिये यह आवश्यक है कि वह लक्ष्य मात्र में जाय, किन्तु जो लक्ष्य मात्र में नहीं जाता वह तो अव्याप्त लक्षणाभास ही है।.. . जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों जगह चला जाय उसे अति व्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे वायु का लक्षण यदि गतिमत्व किया जाय अर्थात् जिसमें गति हो वह वायु है तो यह लक्षण अतिव्याप्त लक्षणाभास कहा जायेगा, क्योंकि यह लक्षण लक्ष्य वायु में जाने के साथ अलक्ष्य वायु से भिन्न मनुष्यादि गतिमान में भी चला जाने के कारण अति व्याप्त हो जाता है। असंभवी लक्षणाभास उसे कहते हैं जो लक्षण लक्ष्यमात्र में न जाय। जैसे गाय का लक्षण यदि 'एक शफवत्वम्' किया जाय अर्थात् जिसे एक खुर हो उसे गाय कहते हैं तो यह लक्षण गोमात्र में नहीं जाता है, क्योंकि गाय के खुर दो होते हैं न कि, एक। इसलिये यह असंभवी लक्षणाभास है। इसी प्रकार पुद्गल का लक्षण यदि चैतन्य कर दिया जाय तो यह भी असंभवी लक्षणाभास होगा, क्योंकि पुद्गल जड़ है। वे चेतन नहीं होते। इसलिये लक्षण ऐसा बनाना चाहिये जो दोषरहित ही हो। (५०) सम्प्रति छायाया द्रव्यत्वं साधयतिछाया द्रव्य है, इस बात को सिद्ध कर रहे हैं छाया द्रव्यं क्रियावत्त्वात् छाया यातीति प्रत्ययात्। क्रियावत्त्वं भ्रमो ज्ञानजन्यश्चासंभवोऽपि च॥५०॥ छाया द्रव्य हैं, क्योंकि उसमें क्रिया होती है। छाया जा रही है। द्रष्टा को यह प्रत्यय होता है। छाया में क्रिया है, यह भ्रम है। वह ज्ञानजन्य है, इसलिये वहां भ्रम होना असंभव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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