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जैनन्यायपञ्चाशती
ज्ञेयस्वभावो भवति । अत एव स विषयोऽस्ति । द्वावपि एतौ स्वतन्त्रौ तथापि ज्ञाने अर्थमवबोद्धुं तथा अर्थे च ज्ञानद्वारा बोध्यस्य क्षमताऽस्ति । अनया रीत्या अनयोः कथञ्चिदभेदोप्यस्ति । वस्तुतस्तु ज्ञानार्थयोः विषयविषयिभावसम्बन्धोऽस्ति ।
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'ज्ञान आत्मा का गुण है' यह पूर्वकारिका में कहा जा चुका है। वह ज्ञान अमूर्त होने पर भी अचिन्त्यशक्तिसंपन्न है। ज्ञान में जो अचिन्त्य शक्ति है वह अग्नि में उष्णता की भांति अथवा दाहिका शक्ति की भांति 'सहजा' शक्ति है । जल में तो अग्निसंपर्क से जो शक्ति उत्पन्न होती है वह कृत्रिम उत्पाद्या शक्ति है। यहां यह फलित होता है कि शक्ति दो प्रकार की है - सहजा और उत्पाद्या। 'उत्पाद्या' शक्ति का दूसरा नाम है आहार्या । 'सहजा' शक्ति सार्वकालिकी होती है, किन्तु आहार्या शक्ति तो अल्पकालिकी है। अग्नि में जो दाहिका शक्ति है वह सार्वकालिकी है । किन्तु जल में दाहिका आहार्या शक्ति अल्पकालिकी ही होती है। सहजा शक्ति स्वरूपसती अर्थात् अग्नि का अपने रूप में रहना, होने मात्र से कार्य करती है, जाती है, न कि ज्ञात्री सती अर्थात् जानने पर ही कार्य करती है, जलाती है, ऐसी बात नहीं है । कोई अग्नि की दाहिका शक्ति को जाने या न जाने फिर भी वह तो जलाती ही है ।
ज्ञान में जो अर्थप्रकाशिका शक्ति है वह स्वरूपतः अर्थ का प्रकाशन करती है । 'जानना ज्ञान है' इस भावव्युत्पत्ति से ज्ञान प्रकाशात्मक ही है। वह ज्ञान अपने विलक्षण अचिन्त्य शक्ति से जैसे समीपस्थ पदार्थ को प्रकाशित करता है वैसे ही दूरतर पदार्थ को भी प्रकाशित करता ही है ।
यहां यह जानना चाहिए कि जैसे जैनन्याय में ज्ञान आत्मा का गुण है वैसे ही न्यायदर्शन में भी ज्ञान आत्मा का गुण स्वीकृत है। 'ज्ञानाधिकरणमात्मा' - ज्ञान का आधार है आत्मा, इस उक्ति से जैसे आत्मा के ज्ञान का आधार व्यक्त होता है वैसे ही न्यायदर्शन में भी आत्मा ज्ञान का आधार है। इतनी समानता होने पर भी दोनों में कुछ भेद देखा जाता है। जैसे किसी वस्तु के ज्ञान के लिए सर्वप्रथम आत्मा और मन का संयोग, फिर मन का इन्द्रिय के साथ संयोग, पुनः इन्द्रिय का अर्थ के साथ संयोग होने पर ‘यह घट है' इस रूप में ज्ञान होता है। यह ज्ञान व्यवसायात्मक ज्ञान कहा
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