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जैनन्यायपञ्चाशती व्यापकता को स्वीकार नहीं करेगा? इसलिए सुना जाता है-'सत्यं ज्ञानमनन्तम्'ज्ञान सत्य है, अनन्त है। यह नित्यज्ञान का लक्षण है।
अनित्य ज्ञान इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से होता है। कहा गया है'इन्द्रियमनोनिबन्धनं मतिः'-जिस ज्ञान में इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होती है वही मतिज्ञान कहलाता है। न्यायदर्शन में तो प्रत्यक्षप्रमाण इस प्रकार बताया गया है-'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्'-इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है। चाहे वह परोक्षज्ञान हो अथवा.प्रत्यक्षज्ञान हो, जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह अनित्य है। इस स्थिति में जो नित्य और अखण्ड ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहा जाता है। उसके अतिरिक्त समस्त उत्पन्न ज्ञान अनित्य जानना चाहिए। ह्रास, विकास और विस्मृति आदि विकार इसी ज्ञान में ही होते हैं।
(२५) ज्ञानद्वारा ज्ञेयस्य ग्रहणं केन प्रकारेणेति प्रतिपादयतिज्ञान के द्वारा ज्ञेय का ग्रहण किस प्रकार से होता है, ऐसा प्रतिपादन किया जा रहा है
किन्तु स्वात्मस्थितं चैव शक्त्या तावदचिन्त्यया।
ज्ञेयं गृह्णाति दूरस्थमपि ज्ञानं सुनिश्चितम्॥२५॥ ज्ञान आत्मस्थित होकर ही अपनी अचिन्त्य शक्ति के द्वारा दूरवर्ती ज्ञेय पदार्थ को भी निश्चित रूप से ग्रहण कर लेता है। न्यायप्रकाशिका
ज्ञानमात्मगुण इति पूर्वकारिकायामुक्तम्। तच्च ज्ञानममूर्तमपि अचिन्त्यशक्तिसंपन्नमस्ति। ज्ञाने या अचिन्त्या शक्तिरस्ति सा अग्नावुष्णतेव दाहिकेव वा सहजा शक्तिः। जले तु अग्निसम्पर्केण या शक्तिरुत्पद्यते सा कृत्रिमा उत्पाद्या। इदमत्र फलितं भवति यत् शक्तिर्द्विधा-सहजा उत्पाद्या च। उत्पाद्याशक्तेर्नामान्तरमस्ति आहार्या इति। सहजा शक्तिः सार्वकालिकी भवति,
१. तर्कसंग्रहः, प्रत्यक्षपरिच्छेदः, पृ. १०। २. ज्ञानविषयकं ज्ञानम् अनुव्यवसायः।
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