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जैनन्यायपञ्चाशती
• तर्क - यह तीसरा परोक्षज्ञान है। यह ज्ञान भी पूर्वकारण सापेक्ष है। इसका लक्षण इस प्रकार किया गया है कि 'अन्वयव्यतिरेकनिर्णयस्तर्क' - अर्थात् अन्वय और व्यतिरेक के निर्णय को तर्क कहते हैं । उनमें अन्वय क्या है और व्यतिरेक क्या है, इस जिज्ञासा में यह जानना चाहिए कि 'तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वयः', 'तदभावे तदभावो व्यतिरेकः'। अर्थात् अन्वय में पहले तत् पद से व्याप्य का तथा द्वितीय तत्पद से व्यापक का ग्रहण करना चाहिए अर्थात् व्याप्य के रहने पर व्यापक को रहना चाहिए । धूएं के रहने पर अग्नि का रहना ही अन्वय है। व्याप्य धूएं के रहने पर व्यापक अग्नि रहता ही है ।
व्यापक के अभाव में व्याप्य का अभाव ही 'व्यतिरेक' है। यहां पहले 'तत्' शब्द से व्यापक का तथा द्वितीय 'तत्' शब्द से व्याप्य का ग्रहण करना चाहिए । व्यापक के अभाव में व्याप्य का अभाव होता ही है । इसका सार यह है कि अन्वय में साधन धूआं व्याप्य होता है और साध्य अग्नि व्यापक होती है। व्यतिरेक में तो साध्याभाव व्याप्य होता है और साधनाभाव व्यापक होता है । साध्य के अभाव में अर्थात् अग्नि के अभाव में साधन का अभाव अर्थात् धूएं का अभाव होता ही है । तर्क के लक्षण को लेकर जब विचार किया जाता है तब यह स्पष्ट होता है कि तर्क के लिए पूर्वानुभव, स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञा इन तीनों की अपेक्षा होती है। वह इस प्रकार है- धूएं में अग्नि की व्याप्ति का ग्रहण करने वाला व्यक्ति जब पर्वत पर धूएं को देखता है तब उसका यह अनुभवात्मक प्रथम ज्ञान होता है कि 'यह पर्वत धूएं वाला है'। इसके बाद धुआं अग्नि का व्याप्य होता है, ऐसी व्याप्ति का स्मरण उसे होता है। उसके बाद 'यह वही धुआं है जो अग्नि की व्याप्ति से युक्त है' ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है। इस प्रकार तर्क पूर्वानुभव, स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञासापेक्ष होता है, इससे यह सिद्ध होता है।
• अनुमान - यह चौथा परोक्षप्रमाण है। 'अनुमा' का अर्थ 'अनुमान' है। इस प्रमाण से पक्ष में साध्य की अनुमिति होती है । साध्य के अनुमान के लिए एक हेतु की अपेक्षा होती है। वह हेतु साध्य का अविनाभावी होना चाहिए । अविनाभावी हेतु वही होता है जिसका साध्य के साथ अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति - दोनों व्याप्तियां होती हों। इस सन्दर्भ में धुआं ही अग्नि की
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