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जैनन्यायपञ्चाशती
31 तदैव चक्षुषा दृश्यते। यदा अञ्जनं चक्षुर्गतं स्यात् तदा तद् न दृश्यते चक्षुषा। एतेन स्पष्टं भवति यत् चक्षुः प्राप्यकारीन्द्रियं नास्ति।अन्यथा चक्षुर्गतम् अञ्जनं चक्षुषा कथं न दृश्येत? चक्षुःसंगतम् अञ्जनमेव यदा चक्षुषा न दृश्यते तदा अन्यं विषयं प्राप्य चक्षस्तं कथं प्रकाशयेत? चक्षः स्वगतमञ्जनं यदि न प्रकाशयेत् तदा अञ्जनं तैजसं मत्वा चक्षुः प्राप्यकारि कथं भवितुमर्हति। अतः चक्षुषः प्राप्यकारित्वं नैव युक्तम्।
कुछ लोग अंजन को अर्थप्रकाशकत्व होने के कारण तैजस मानकर चक्षु की प्राप्यकारिता को सिद्ध करना चाहते हैं। उनका यह मत युक्त नहीं है, क्योंकि अंजन जब दूरस्थ होता है तभी चक्षु से देखा जाता है। जब अंजन चक्षुगत होता है तब वह चक्षु के द्वारा नहीं देखा जाता। इससे यह स्पष्ट होता है कि चक्षु प्राप्यकारी इन्द्रिय नहीं है। अन्यथा चक्षुगत अंजन चक्षु से क्यों नहीं देखा जाता? जब चक्षु में आंजा हुआ अंजन ही चक्षु से नहीं देखा जाता तब वह दूसरे विषय को प्राप्तकर उसको कैसे प्रकाशित करेगा? यदि चक्षु अपने भीतर आंजे हुए अंजन को प्रकाशित न करे तब अंजन को तैजस मानकर चक्षु प्राप्यकारी इन्द्रिय कैसे हो सकता है? अतः चक्षु का प्राप्यकारित्व युक्त नहीं है।
(१६) अक्षरदृष्टान्तद्वारा चक्षुषः प्राप्यकारित्वं निवारयतिअक्षर के दृष्टान्त द्वारा चक्षु के प्राप्यकारित्व का निवारण कर रहे हैं___ साक्षानिरीक्षते दूरादक्षराणि च तानि हि।
न तत्प्रपार्श्ववर्तीनि कथं तत्प्राप्यकारिता?१६॥ जो अक्षर दूर से देखे जा सकते हैं वे चक्षु के अति निकट आने पर नहीं देखे जा सकते, इसलिए चक्षु प्राप्यकारी कैसे हो सकता है? न्यायप्रकाशिका ___अक्षराणि दृश्यन्ते चक्षुषा, किन्तु तान्येव अक्षराणि चक्षुषा दृश्यन्ते यानि दूरस्थितानि सन्ति। यानि अक्षराणि चक्षुषः प्रपार्श्ववर्तीनि-समीपस्थानि सन्ति तानि तु न दृश्यन्ते चक्षुषा। चक्षुषो विषयस्य चातिसामीप्यं हि
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