Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ जैनन्यायपञ्चाशती 35 आदि पदार्थों का संस्पर्श और रसन- - इन्द्रिय के साथ तिक्त कटु रस आदि का संस्पर्श ही विषयों की स्पष्ट अनुभूति कराता है। यह प्रत्यक्ष है कि दूसरी इन्द्रियों के विषय दूर से उतने स्पष्ट नहीं होते जितने स्पष्ट समीपस्थ के होते हैं। चक्षु के विषय में तो इससे विपरीत देखा जाता है । चक्षु दूर से ही विषयों का अधिक स्पष्टता से बोध कराता है, किन्तु चक्षु आंजे हुए कज्जल आदि का उससे बोध नहीं होता । चक्षु यदि कज्जल आदि को प्राप्त करके भी उसे प्रकाशित नहीं करता तब उसे प्राप्यकारी इन्द्रिय कैसे कहा जा सकता है, इसलिए वह प्राप्यकारी इन्द्रिय नहीं है । (१८) इदानीं श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारित्वं साधयति अब श्रोत्र - इन्द्रिय की प्राप्यकारिता को सिद्ध कर रहे हैं उपघातानुग्रहत्वाच्छ्रोत्रस्य प्राप्यकारिता । प्रत्यक्षं सिद्धिमादत्ते तत्र संदेग्धि कः सुधीः ? १८॥ श्रोत्रेन्द्रिय की प्राप्यकारिता प्रत्यक्ष सिद्ध है, क्योंकि वहां उपघात और अनुग्रहदोनों देखे जाते हैं। वहां कौन विद्वान् संदेह कर सकता है ? न्यायप्रकाशिका - श्रोत्रेन्द्रियं प्राप्यकारि अस्ति । इदमिन्द्रियं विषयं प्राप्य तं प्रकाशयति । अत्र उपघातानुग्रहौ दृश्येते । इमौ च तत्रैव भवतो यत्र इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं स्यात् । विषयमुपगतेष्वेव इन्द्रियेषु भवति उपघातो ऽनुग्रहो वा । उपघातस्तु इन्द्रियेषु काचित् क्षतिः प्रतिकूलता वेदनीया । कर्कश - विस्फोटकशब्दश्रवणे भवत्येव उद्वेजकता श्रोत्रस्य । श्रोत्रप्रियमधुरशब्दश्रवणे भवत्येवानुभूतिः सुखदा । श्रुतिपथमुपगतेष्वेव शब्देषु प्रतिकूलानुकूला वा स्थितिर्जायते । शब्दानां श्रुतिपथमागमनमेव श्रोत्रस्य प्राप्यकारिता अस्ति । प्रकारान्तरेण शक्यते वक्तुं यत् श्रोत्रेन्द्रियं शब्दान् प्राप्यैव सुखदामुद्वेजिकां वा स्थितिमाप्नोति । एतद् सर्वं स्वानुभूत्यैव प्रत्यक्षं वर्तते । अस्यां स्थितौ कः सुधीजनोऽत्र सन्देहं कुर्यात् ? न कोऽपीति भावः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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