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जैनन्यायपञ्चाशती श्रोत्र-इन्द्रिय प्राप्यकारी है। यह इन्द्रिय विषय को प्राप्त करके उसका प्रकाशन करती है। यहां उपघात और अनग्रह दोनों देखे जाते हैं। ये दोनों वहीं होते हैं जहां इन्द्रियां प्राप्यकारी होती हैं। इन्द्रियों के द्वारा विषय की प्राप्ति होने पर ही उपघात और अनुग्रह होता है। उपघात का अर्थ है-इन्द्रियों में कुछ क्षति और प्रतिकूलता की अनुभूति । कर्कश विस्फोटक शब्द के श्रवण से ही श्रोत्र की उद्वेजकता होती है और कर्णप्रिय मधुर शब्द के श्रवण से ही सुखद अनुभूति होती है। कान में शब्दों के आने पर ही प्रतिकूल और अनुकूल स्थिति बनती है। शब्दों का श्रुति में आना ही श्रोत्रइन्द्रिय की प्राप्यकारिता है। दूसरी प्रकार से यह भी कहा जा सकता है कि श्रोत्रइन्द्रिय शब्दों को प्राप्त करके ही सुखद अथवा उद्वेजक स्थिति को प्राप्त करती है। ___यह सब स्व-अनुभूतिजन्य प्रत्यक्ष है। इस स्थिति में कौन बुद्विमान् व्यक्ति यहां संदेह कर सकता है? कोई भी नहीं करता, यह इसका भाव है। .
(१९) श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारित्वमस्वीकुर्वतां बौद्धानां मतं खण्डयितुमुपक्रमते
बौद्ध श्रोत्र-इन्द्रिय की प्राप्यकारिता को स्वीकार नहीं करते। उनके मत का खण्डन करने के लिए यह उपक्रम किया जा रहा है
दिग्देशव्यपदेशत्वाच्छ्रोत्रस्याप्राप्यकारिता।
दिग्देशव्यपदेशस्तु गन्धस्पर्शनयोरपि॥१९॥ बौद्धदर्शन का अभिमत है कि श्रोत्रेन्द्रिय प्राप्यकारी नहीं है। इसका हेतु है कि उसके विषय में दिक् और देश का व्यपदेश होता है-अमुक दिशा से शब्द आ रहा है, अमुक देश से शब्द आ रहा है। इस प्रकार का व्यपदेश होता है। इसके उत्तर में जैन दार्शनिकों ने कहा कि दिक् और देश का व्यपदेश घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में भी होता है, अतः इस हेतु से श्रोत्र को अप्राप्यकारी नहीं माना जा सकता। न्यायप्रकाशिका
__ श्रोत्रेन्द्रियविषये बौद्धदर्शनस्येदमभिमतम् यत् तद् प्राप्यकारिइन्द्रियं नास्ति। प्राप्यकारि इन्द्रियं तदेव भवति यत् विषयं प्राप्य तं प्रकाशयेत। नैषा स्थितिरस्ति
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