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जैन न्यायपञ्चाशती
परोक्ष प्रमाण के पांच भेद होते हैं। वे ये हैं - स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम। इनमें पूर्व कारण की अपेक्षा होती है। इस अपेक्षा का क्रम इनमें इस प्रकार होता है
• स्मृति - यह अनुभवजन्य होती है। पहले किसी भी वस्तु का अनुभवात्मक ज्ञान होता है। उसके पश्चात् उसी के सदृश वस्तु को देखने पर पहले अनुभूत की हुई स्मृति इस रूप में होती है, जैसे- 'वह सुदिन' अथवा 'वह मेरा मन' । स्मृति में 'तत्' शब्द का उल्लेख होता है। इससे स्पष्ट है कि स्मृति में कोई भी नया विषय नहीं आता प्रत्युत पहले देखे हुए अथवा सुने हुए का ही केवलं स्मरण होता है। यहां कोई वस्तु सम्मुख नहीं होती, किन्तु उसका केवल स्मरण ही होता है। पूर्व में देखे हुए अथवा सुने हुए के स्मरण से उत्पन्न ज्ञान को स्मृति कहा जाता है - 'अनुभवजन्यं ज्ञानं स्मृतिः ।' अर्थात् अनुभवजन्य ज्ञान ही स्मृति है। इसी प्रकार भिक्षुन्यायकर्णिका में भी स्मृति का यह लक्षण प्राप्त होता है - 'संस्कारोद्बोधसंभवा तदित्याकारा स्मृतिः ।' अर्थात् संस्कार के उद्बोध से उत्पन्न तत्शब्द से युक्त आकार वाला ज्ञान स्मृति है ।
इसका यह अभिप्राय है कि पूर्व में कुछ ज्ञात विषय हमारे संस्कारों में अवस्थित हो जाते हैं। जब कभी हमारे संस्कारों का उद्बोधन होता है तब वे वहां अवस्थित विषय हमारे ज्ञान का विषय बन जाते हैं अर्थात् याद आ जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्मृति से कोई नया विषय नहीं जाना जाता, अपितु ज्ञात विषयों का ही स्मरण होता है। यह ज्ञान स्मरणात्मक ही है, अनुभवात्मक नहीं है। इसलिए प्रस्तुतकारिका में जो लिखा गया है कि 'प्राक्तनानुभवापेक्षं स्मरणम्'- अर्थात् स्मृतिपूर्व-अनुभवसापेक्ष है, वह उचित ही है। स्मृति पूर्व में होने वाले अनुभव से ही होती है, अतः यहां पूर्व अनुभव की अपेक्षा होती है।
इसी तथ्य का वादिदेवसूरि ने भी उल्लेख किया है- 'संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं स्मरणमिति ।' अर्थात् संस्कार - जागरण से उत्पन्न अनुभूत अर्थ को बताने वाला तथा तत्शब्द से युक्त आकार वाला ज्ञान स्मृति
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