Book Title: Jain Nyaya Panchashati
Author(s): Vishwanath Mishra, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 37
________________ 20 जैनन्यायपञ्चाशती पारमार्थिकं प्रत्यक्षम् आत्मना जायमानं यथार्थ प्रत्यक्षम्। अत्र न किमपि व्यवधानं माध्यमं वा भवति। इदं शुद्धं निरावरणात्मस्वरूपं ज्ञानं वर्तते।अनयोः सांव्यवहारिक-पारमार्थिकप्रत्यक्षयोर्मध्ये सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य स्रोतोऽस्ति इन्द्रियाणि तथा मनश्च। कारिकास्थेन अनिन्द्रियपदेन मनसः ग्रहणं कर्त्तव्यम्। एतेनेदमपि व्यक्तं भवति यन्मनस इन्द्रियत्वं नैव स्वीकृतमिति। अत्र यद् पारमार्थिकं प्रत्यक्षमुक्तं तस्य स्रोतोऽस्ति आत्मा। तात्पर्यमिदं यत् सांव्यवहारिकं प्रत्यक्ष मनोयुक्तैरिन्द्रियैर्भवति तथा पारमार्थिकं प्रत्यक्षं तु आत्मना एव जायते। ज्ञानस्य येयं परम्परा जैनदर्शनेऽभिमता सा एव परम्परा प्रकारान्तरेण वा न्यायदर्शनेऽप्यभिमता। तथोक्तं चैवम्-'आत्मा मनसा युज्यते, मन इन्द्रियेण युज्यते, इन्द्रियञ्चार्थेन युज्यते ततः प्रत्यक्षमिति। वस्तुतस्तु यावन्न संयुज्येरन् इन्द्रियाणि स्वविषयस्तावन्न कस्यापि विषयस्य ज्ञानम्। इन्द्रियाणि च तदैव संयुज्यन्ते विषयैः यदा तान्यपि मनःप्रेरि । न भवेयुः।मनोऽपि तावन्न प्रवर्तते विषयेषुयावद् आत्मप्रेरितं तन्न स्यात्। एवञ्चात्मा मन इन्द्रियञ्चेति त्रयाणां सहयोगेनैव जायते किमपि ज्ञानमिति स्पष्टोऽर्थः। सांव्यवहारिक और पारमार्थिक भेद से प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार का है। सम्यक् व्यवहार को सांव्यवहारिक और परमार्थज्ञापक ज्ञान को पारमार्थिक कहते हैं, यह इनकी निरुक्ति है। इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों में से किसी एक का उपयोग होता है। इसमें आत्मा तथा ज्ञेय पदार्थों के बीच इन्द्रियों का व्यवधान होता है, इसलिए यह ज्ञान आत्मव्यवहित है। यद्यपि इस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहना उचित नहीं है, फिर भी लोकदृष्टि से इसे प्रत्यक्ष की भांति माना जाता है, इसलिए इसका 'सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष' शब्द से व्यवहार किया जाता है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष आत्मा से होने वाला यथार्थ प्रत्यक्ष है। इस प्रत्यक्ष में न कोई व्यवधान होता है और न कोई माध्यम। यह शुद्ध, आवरणरहित और आत्मस्वरूप ज्ञान होता है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष-इन दोनों ज्ञान के मध्य सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का स्रोत है-इन्द्रियां और मन। १. न्यायदर्शनम्, सू. ४, वात्स्यायनभाष्य, पृ. १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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