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जैनन्यायपञ्चाशती
21 प्रस्तुत कारिका में प्रयुक्त अनिन्द्रियपद' से मन का ग्रहण होता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मन को इन्द्रिय नहीं माना जाता। यहां जो पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है उसका स्रोत है-आत्मा। इसका तात्पर्य है कि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मनोयुक्त इन्द्रियों से होता है और पारमार्थिक प्रत्यक्ष आत्मा से ही होता है।
जैनदर्शन में ज्ञान की यह परम्परा सम्मत है। वही परम्परा प्रकारान्तर से न्यायदर्शन में भी अभिमत है। इस प्रकार कहा गया है-'आत्मा का मन से योग होता है, मन का इन्द्रिय से योग होता है और इन्द्रिय का अर्थ के साथ योग होता है तब प्रत्यक्ष होता है।'
वस्तुतः जब तक इन्द्रियों का अपने-अपने विषय से सम्बन्ध नहीं होता तब तक किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियां भी तब तक अपने विषय से संबद्ध नहीं होती जब तक मन उनको प्रेरित नहीं करता और मन भी तब तक विषयों में प्रवृत्त नहीं होता जब तक वह आत्मप्रेरित न हो। इस प्रकार आत्मा, मन और इन्द्रियां-इन तीनों के सहयोग से ही कोई भी ज्ञान होता है, यह स्पष्ट है।
(११) सम्प्रति सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य भेदान् निरूपयतिअब सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेदों का निरूपण कर रहे हैं
.अवग्रहस्तथैवेहावायश्च धारणा तथा।
व्यञ्जनार्थभिदाद्यस्य सर्वेऽष्टाविंशतिर्मता॥ ११॥ मतिज्ञान (इन्द्रिय और मानसज्ञान) के मूल चार प्रकार हैं-१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय, ४. धारणा। अवग्रह के दो प्रकार हैं-व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । सब इन्द्रियों और मन के साथ इनका योग करने पर मतिज्ञान के अट्ठाईस प्रकार होते हैं। न्यायप्रकाशिका
इदमत्र तथ्यम्-सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमेव मतिज्ञानपदेनाप्युच्यते।अस्मिन् ज्ञाने इन्द्रियाणां मनसश्च उपयोगो भवति। अत एवोच्यते-'इन्द्रियमनोनिमित्तं मतिः'। अस्मिन् ज्ञाने आत्मनो वस्तुनश्च मध्ये परापतन्ति इन्द्रियाणि। अत एव ज्ञानमिदं व्यवधिमत् भवति। एवं ज्ञानमिदं परोक्षमेवेति शक्यते वक्तुं तथापि
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