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जैनन्यायपञ्चाशती
27 'बुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावेतौ व्याप्नुतो घटम्।
तत्राऽज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत् ॥' अस्य कथनस्य निराकरणं कुर्वन् ग्रन्थकारो ब्रूते यत् चक्षुषः रश्मयः पदार्थं यावत् गत्वा पदार्थ प्रकाशयन्ति अथवा पदार्थानां रश्मयः चक्षुर्यावत् आगत्य पदार्थान् प्रकाशयन्ति। एतद्वयं प्रमाणप्रतिपन्नं नास्ति। चक्षु-विषययोर्मध्ये व्यवधानेऽपि चक्षुः दूरत एव विषयान् बोधयति । प्रक्रियेयं मनसोऽपि। व्यवहितपदार्थप्रकाशकत्वमनयोः प्राप्यकारित्वबाधकमस्ति।
चक्षु और मन-ये दोनों प्राप्यकारी नहीं है। ये दोनों विषय से संबद्ध होकर ही उसका प्रकाशन नहीं करते, किन्तु व्यवहित पदार्थों का प्रकाशन करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि चक्षु और मन जब पदार्थों से असंबद्ध होकर उनका बोध कराते हैं तब इनको प्राप्यकारी कैसे कहा जा सकता है?
वेदान्तदर्शन के अनुसार मन और चक्षु प्राप्यकारी हैं। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-तैजसचक्षु इन्द्रिय से घट (विषय) तक एक प्रणाली बन जाती है। उस प्रणाली के द्वारा अन्तःकरण घट तक जाता है और वह वहां जाकर विषयाकार बन जाता है। उस विषयाकाराकारित अन्त:करण पर चेतन का प्रकाश पड़ता है। उससे घट का ज्ञान होता है। जैसे कहा है
_ 'बुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावेतौ व्याप्नुतो घटम्।
तत्राऽज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत्॥' बुद्धि और उसमें रहने वाला चिदाभास-ये दोनों घट को व्याप्त कर लेते हैं। वहां बुद्धि से घटविषयक अज्ञान नष्ट हो जाता है और चिदाभास से घट का प्रकाशन होता है।
इस कथन का निराकरण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि चक्षु की रश्मियां पदार्थ तक जाकर उसका प्रकाशन करती हैं, अथवा पदार्थे की रश्मियां चक्षु तक आकर पदार्थों का प्रकाशन करती हैं, ये दोनों बातें प्रमाण सिद्ध नहीं है । चक्षु और विषय के मध्य . व्यवधान होने पर भी चक्षु दूर से ही विषयों का बोध करा देता है। यही प्रक्रिया मन की भी है। व्यवहित पदार्थ का प्रकाशन चक्षु और मन के प्राप्यकारित्व का बाधक है।
१. पञ्चदशी, तृप्तिदीपप्रकरणम् : पृ. २५५, श्लो. ९१ ।
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