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!! अनुशंसनीय एवं अनुमोदनीय अद्भूत कार्य !!
संस्कारों से ही संस्कृति बनती हैं तथा मनुष्य का आचार एवं व्यवहार अनुशासित होता हैं। जैनाचार्यों ने सिद्धान्तों का प्रतिपादन इस प्रकार किया हैं, जिससे व्यक्ति अपने को संयमित कर आत्म विकास कर सके ।
आत्मसाधना के मार्ग में जिस प्रकार ज्ञान सहायक हैं, उसी प्रकार क्रिया भी सहायक हैं। जैनाचार्यों का कथन हैं "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष मार्ग" अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया इन दोनों से ही मोक्ष होता हैं। अतः जैन दर्शन में मोक्षमार्ग के पथिक हेतु ज्ञान के साथ क्रिया अर्थात् आचरण को भी परमावश्यक माना गया हैं । इस तथ्य की महत्ता को अभिव्यक्त करने हेतु हरिभद्रसूरिकृत पंचाशकप्रकरण, पंचवस्तु, पादलिप्ताचार्यकृत निर्वाणकलिका, जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा आदि। उन विधि - विधान सम्बन्धी कृतियों में से एक प्रमुख कृति आचारदिनकर भी हैं। प्रस्तुत कृति जैन परम्परा से सम्बन्धित लगभग सभी विधि-विधानों को प्रस्तुत करती हैं।
ज्ञान एवं आचार को मुख्यता देने वाली तथा चैत्यवासी परंपरा के विरूद्ध सर्वप्रथम क्रांति का शंखनाद करने वाली खरतरगच्छीय परंपरा की रूद्रपल्ली शाखा के बारहवें पट्टधर श्रीजयानंद सूरि के प्रखर शिष्य श्री वर्धमानसूरि ने वि.सं. १४६८ में जालन्धर अपरनाम नंदनवनपुर (पंजाब) में १२५०० संस्कृत श्लोकों एवं प्राकृत गाथाओं में आचारदिनकर नामक ग्रंथ की रचना की हैं। जैन धर्म की आचार प्रणाली को सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने में आचारदिनकर का महत्त्वपूर्ण अवदान हैं।
यह कृति साधकों को विधि-विधान सम्बन्ध न केवल प्रचुर सामग्री ही प्रदान करती हैं, वरन् स्पष्ट विवरण भी प्रस्तुत करती हैं । विधि-विधान सम्बन्धी यह कृति जैन साहित्य में अद्वितीय है, किन्तु भाषा की एवं विषय की दुरूहता के कारण यह कृति जनसामान्य के ज्ञान का विषय नहीं बन पाई। ऐसे ग्रंथों का अनुवाद कार्य सरल नहीं होता हैं । जैन विधि-विधानों का स्पष्ट बोध, संस्कृत-प्राकृत भाषा व्याकरण आदि शास्त्रीय संज्ञाओं का सम्यक् परिचय एवं
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