Book Title: Jain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 4
________________ जैनहितैषी - ५८ इस भेदवृद्धिके साथ साथ धर्मके मूल सिद्धा न्तोंका भी कम क्रमसे रूपान्तर होता रहता है । पहली और दूसरी, दोनों ही प्रकृतिके लोग, आपसकी खींच-तान में उनको अपने अपने पक्ष के अनुसार बनानेमें लगे रहते हैं और इस कारण उनमें कुछ न कुछ विकृति आये बिना नहीं रहती । पुराना साहित्य जीर्ण शीर्ण दुर्लभ या अलभ्य होता रहता है, उसके स्थान में नया साहित्य बनता रहता है और नया पुरानेका अनुधावन करनेवाला होने पर भी कुछ न कुछ विकृत अवश्य होता जाता है । इस तरह जब हजारों वर्ष बीत जाते हैं, तब कुछ विद्वान् ऐसे भी होते हैं, जो इस विकृत रूपको संशोधित करनेकी आवश्यकता समझते हैं और धर्मकी मूल प्रकृतिका अध्ययन करके तथा प्राचीन ग्रन्थोंको प्राप्त करके उनके सहारे धर्मके उसी प्राचीन स्वरूपको फिरसे प्रकट करनेका प्रयत्न करते हैं; परन्तु उसे सर्वसाधारण गतानुगतिक नहीं मानते और इस कारण जो लोग उन्हें मानने लगते हैं उनका फिर एक जुदा सम्प्रदाय बन जाता है । इस तरह के प्रयत्न बार बार हुआ करते हैं और प्रत्येक बार वे सिवाय इसके कि एक नये सम्प्रदायकी नीव डाल जावें, सबको अपना अनुयायी नहीं बना सकते । इस प्रकारके प्रयत्नोंसे सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि प्रायः प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने धर्म के मूल और प्राचीन सिद्धान्तों से बहुत दूर नहीं भटकने पाते उनके करीब करीब ही बने रहते हैं । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकारके प्रयत्नोंसे उत्पन्न हुआ कोई सम्प्रदाय अपने धर्मके मूल स्वरूपको जैसेके तैसे रूपमें पा जाता हो । बीचका हजारों वर्षोंका लम्बा समय, मूल धर्मप्रवर्तकों की आज्ञाओं या उपदेशोंकी वास्तविक रूपमें और यथेष्ट संख्या में अप्राप्ति, मूल उपदेशोंकी भाषामें अर्थभेद होने [ भाग १४ की संभावना, और प्रयत्नकर्ताओंका भ्रान्तिप्रमादपूर्ण ज्ञान आदि अनेक कारण ऐसे हैं जो मूलस्वरूपको प्राप्त करनेमें बड़े भारी बाधक हैं । बहुतसे पन्थों या भेदोंकी सृष्टि धर्मगुरुओं के आपसके रागद्वेषसे और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायोंसे भी हुआ करती है । बहुतसे पन्थों का इतिहास देखनेसे मालूम होता है कि वे बहुत जरा जरासे मतभेद के कारण जुदा जुदा हो गये हैं । यदि उनके प्रवर्तक 'समझौते' की ओर जरा मी झुकते तो जुदा होने की आवश्यकता ही न पड़ती । पर कषाय-क्षेत्रोंतक ' समझौते' की पहुँच नहीं । बहुत से पन्थों का जन्म अपने समय के किसी प्रभावशाली धर्मके आक्रमणसे अपने धर्मको डगमगाते देख, उसमें उस धर्म के अनुकूल परिवर्तन और संशोधन आदि करनेके कारण भी हुआ है । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें अपने बुद्धि-वैभव से अपने धर्ममें अनेक दोष मालूम होते हैं और वे उसे छोड़कर अन्य धर्म ग्रहण करने की अपेक्षा उसको ही संस्कृत करना अच्छा समझते हैं और इस तरह उनका वह संस्कार किया हुआ धर्म एक नये पंथमें परिणत हो जाता है । इस तरह अनेक कारणोंसे विविध पन्थों और सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुआ करती है और धर्मोकी 'बेल' बढ़ती रहती है । बहुत से पन्थ क्षणजन्मा भी होते हैं । उत्पन्न हुए, कुछ बढ़े, और फलने-फूलने के पहले ही मुरझाकर नष्ट हो गये । ऐसे पन्थोंके नाम तक लोग भूल जाते हैं। किसी किसी प्राचीन पुस्तकके पत्र अवश्य ही उनकी स्मृति बनाये रखते हैं। न जाने ऐसे कितने सम्प्रदाय अवतक इस पृथ्वीपर जन्म लेकर नामशेष हो चुके हैं । संसारमें साम्य और मैत्रीभावके परम प्रचारक जैनधर्म में भी अब तक अनेक सम्प्रदाय और पन्थोंकी सृष्टि हो चुकी है, जिनमें से बहुPage Navigation
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