Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 9
________________ १३५ सम्प्रदायमें श्रीजिनदत्तमरि नामके एक आचार्य विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें होगये हैं। उनका बनाया हुआ 'विवेक-विलास' नामका एक ग्रंथ है। सम्वत् १९५४ में यह ग्रंथ अहमदाबादमें गुजराती भाषाटीकासहित छपा था। और इस समय भी बम्बई आदि स्थानोंसे प्राप्त होता है। इस — विवेकविलास' और कुंदकुंदश्रावकाचार दोनों ग्रंथोंका मिलान करनेसे मालूम होता है कि, ये दोनों ग्रंथ वास्तवमें एक ही हैं और यह एकता इनमें यहाँतक पाई जाती है कि, दोनोंका विषय और विषयके प्रतिपादक श्लोक ही एक नहीं, बल्कि दोनोंकी उल्लाससंख्या, आदिम मंगलाचरण* और अन्तिम काव्य+ भी एक ही है। कहनेके लिए दोनों ग्रंथोंमें सिर्फ २०.-३० श्लोकोंका परस्पर हेरफेर है। और यह हेरफेर भी पहले, दूसरे, तीसरे, पाँचवें और आठवें उल्लासमें ही पाया जाता है। बाकी उल्लास (नं. ४, ६, ७, ९, १०, ११, १२) बिलकुल ज्यों के त्यों एक दूसरेकी प्रतिलिपि ( नकल ) मालूम होते हैं। प्रशस्तिको छोड़कर विवेकविलासकी पद्यसंख्या १३२१ और कुंदकुंदश्रावकाचारकी १२९४ है। विवेकविलासमें अन्तिम काव्यके बाद १० पद्योंकी एक 'प्रशस्ति' लगी हुई है, जिसमें जिनदत्तसूरिकी गुरुपरम्परा आदिका वर्णन है। *दोनों ग्रंथोंका आदिम मंगलाचरण: " शाश्वतानन्दरूपाय तमस्तोमैकभास्वते । सर्वज्ञाय नमस्तस्मै कस्मैचित्परमात्मने ॥ १॥ ( इसके सिवाय मंगलाचरणके दो पद्य और है।) +दोनों ग्रंथोंका अन्तिम काव्यः-- " स श्रेष्ठः पुरुषाग्रणीः स सुभटोत्तंसः प्रशंसास्पदम्, स प्राज्ञः स कला निधिः स च मुनिः स क्ष्मातले योगवित् । स ज्ञानी स गुणिव्रजस्य तिलकं जानाति यः स्वां मृतिम् , निर्मोहः समुपार्जयत्यथ पदं लोकोत्तरं शाश्वतम् ॥ १२-१२ ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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