Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 03
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 36
________________ हैं परन्तु इस बातको शायद ही कोई स्वीकार करे कि विशाल ज्ञान और जोखिमदारियोंके खयालसे भी दुःख होता है। अच्छा तो ठहरिए, मैं एक दो दृष्टान्त देकर इसके समझानेका प्रयत्न करता हूँ: १-परमार्थ या परोपकार करना अच्छा है, इस आशयसे व्यापारादिमें रुपया कमाकर उन्हें लोगोंके उपकारमें खर्च करना अच्छा है या इसी आशयसे ज्ञानमें गहरा प्रवेश करके–' गुप्तदृष्टा ' बनकरके दुनियाको उपदेश देनेमें लग जाना और उसके घनघोर अन्धकारपूर्ण मार्गमें थोड़ा बहुत प्रकाश डालना अच्छा है ? अर्थात् इन दो बातोंमेंसे किसके करनेसे जीवनका विशेष उपयोग हो सकता है ? २–मेरे बालक और मेरे बालबुद्धि सहधर्मी बुरे रास्ते जा रहे हैं। यदि उन्हें सीधी तरहसे सीधा रास्ता बतलाया जाता है तो वे मानते नहीं है परन्तु यदि मनमें दयाभाव रखके बाहरसे कुछ डाँटदंपट की . जाती है तो वे डरसे सीधे रास्ते पर चलने लगते हैं और कुछ समय तक चलते रहनेसे उनको अभ्यास हो जाता है-वह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है। पर उक्त कृत्रिम डाँटदपट दिखलानेसे कभी कभी मेरी आन्तरिक शान्तिमें बाधा पड़ने लगती है ? ( यहाँ यह मान लेना चाहिए कि कुछ न करके केवल आत्मसुधारणामें ही संतोष मान कर बैठ रहना जैनजीवनसे विरुद्ध है।) __कौनसा रास्ता अधिक सुगम है इसका नहीं, किन्तु कौनसा रास्ता अधिक हितावह है इसके निर्णय करनेका काम ज्यों ज्यों ज्ञान ....... .......................................................... तब दुनियाके विचारों, दृष्टिविंदुओं, मार्गों, रीति रवाजोंसे जुदा होना, दुनियाके मनुष्योंके कानून जालसे मुक्त होना, नियमोंके पुतलेके आगे सिर झुकानेसे इंकार करना यह क्या कोई दुनियाकी दृष्टिमें छोटा मोटा अपराध है ? ऐसे लोगोंको कड़ीसे कड़ी सजा कैसे देना चाहिए इस कामको दुनिया अच्छी तरह जानती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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