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में ही गर्मित हैं । जो केवल निश्चयका पोषक है वह इन विषयोंका वर्णन नहीं कर सकता। ___ बनारसीदाजीने कोई नवीन मत चलाया था, उनके ग्रन्थोंसे इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। युक्तिप्रबोधके कर्त्ताको छोड़कर और कोई इस बातका कहनेवाला नहीं है । आगरेमें बनारसीदासजीके पीछे दिगम्बरसम्प्रदायके अनेक ग्रन्थकर्ता हुए हैं जिन्होंने उनका नाम बड़े आदरसे लिया है। यदि उनका कोई नवीन मत होता और उसकी परम्परा कँवरपाल आदिसे चली होती, तो यह कभी संभव न था कि दूसरे प्रन्थकर्ता जो कि अपने सम्प्रदायके कट्टर श्रद्धालु थे, वनासीदासजीकी प्रशंसा करते । बनारसीदासजीके ग्रन्थोंका प्रचार भी अधिकतासे न होता। उनका नाटकसमयसार तो ऐसा अपूर्व ग्रन्थ है कि उसे
जैनोंके तीनों सम्प्रदाय ही नहीं अजैन लोग भी पढ़कर अपना कल्याण करते हैं।
दूसरा आक्षेप यह है कि 'बनारसीदास न तो दिगम्बरी थे और न श्वेताम्बरी-उन्होंने दोनोंका एक खिचडा बनाया था।' यह ठीक है कि बनारसीदास श्रीमाल वैश्य थे, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उनका जन्म हुआ था और खरतरगच्छीय यति भानुचन्द्र उनके गुरु थे; परन्तु पीछे दिगम्बर सम्प्रदायके ही अनुयायी हो गये थे ऐसा उनकी रचनासे स्पष्ट मालूम होता है। साधुवन्दना नामक कवितामें उन्होंने मुनियोंके अट्ठाईस मूल गुणोंका वर्णन किया है और उसमें मुनिके लिए वस्त्रोंका त्याग करना या दिगम्बर रहना आवश्यक बतलाया है । इसके सिवा उत्तम कुलके श्रावकके यहाँ भोजन करना उचित बतलाया है। ये दोनों बातें श्वेताम्बर सम्प्रदायसे विरुद्ध हैं- .
लोकलाजविगलित भयहीन, विषयवासनारहित अदीन । नगन दिगम्बर मुद्राधार, सो मुनिराज जगत सुखकार ॥२८
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