Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
वार्षिक मूल्य १)
Reg. No. B.719.
जैनहितैषी।
साहित्य, इतिहास, समाज और धर्मसम्बन्धी
लेखोंसे विभूषित
मासिकपत्र। सम्पादक और प्रकाशक-नाथूराम प्रेमी।
दशचाँ भाग।
पौष श्रीवीर नि० संवत् २४४०
सरा अंक।
20
15nce
विषयसूची। १ बालक और वसन्त २ ग्रन्थपरीक्षा ३ जैन जीवनकी कठिनाइयाँ ... ४ ऐतिहासिक लेखोंका परिचय ५ चार लाखके दानसे कौनसी संस्था
खुलना चाहिए ६ कविवर बनारसीदासजी पर एक भ्रमपूर्ण आक्षेप ... ७विविध प्रसंग
१७१ १७७
१८८
लल्ला
पत्रव्यवहार करनेका पता
श्रीजैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय,
हीराबाग, पो० गिरगांव-बम्बई।
MODOG
Printed by N. Kulkarni at his Karnatak Press. For Personal & Private Use Only
Girgaon Back Road, Bombay, for the Proprietors.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
नई पुस्तकें।
समाज। बंग साहित्यसम्राट्कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी बंगला पुस्तकका हि अनुवाद । इस पुस्तककी प्रशंसा करना व्यर्थ है । सामाजिक विषयोंपर पाण्डित्यपूर्ण विचार करनेवाली यह सबसे पहली पुस्तक है। इस पुस्तकमेंके समुद्र यात्रा, अयोग्यभक्ति, आचारका अत्याचार आदि दो तीन लेख पहले जैनहितैषीमें प्रकाशित हो चुके हैं। जिन्होंने उन्हें पढ़ा होगा वे इस ग्रन्थका महत्त्व समझ सकते हैं। मूल्य आठ आना।
प्रेमप्रभाकर। रूसके प्रसिद्ध विद्वान् महात्मा टाल्सटायकी २३ कहानियोंका हिन्दी अनुवाद। प्रत्येक कहानी दया, करुणा, विश्वव्यापी प्रेम, श्रद्धा और भाक्तके तत्त्वोंसे भरी हुई है। बालक स्त्रियां, जवान बूढ़े सब ही इनसे शिक्षा उठा सकते हैं। मू०१)
कहानियोंकी पुस्तक-लाला मुंशीलालजी जैन एम. ए. की लिखी हुई। इसमें छोटी छोटी ७५ कहानियोंका संग्रह है। बालकों और विद्यार्थियोंका बड़े ही कामकी है । मनोरंजक भी है और शिक्षाप्रद भी है। मूल्य ।)
गृहिणीभूषण-प्रत्येक स्त्रीके पढ़ने योग्य बहुत ही शिक्षाप्रद पुस्तक अभी हाल ही तैयार हुई है । भाषा भी इसकी सबके समझने योग्य सरल है।
स्वर्गीय जीवन-अमेरिकाके प्रसिद्ध आध्यात्मिक विद्वान् राल्फ वाल्टो ट्राइनकी अंगरेजी पुस्तकका अनुवाद । पवित्र, शान्त, नीरोगी और सुखमय जीवन कैसे बन सकता है यह इस पुस्तकमें बतलाया गया है। मानसिक प्र त्तियोंका शरीरपर और शारीरिक प्रवृत्तियोंका मनपर क्या प्रभाव पड़ता इसका इसमें बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन है। प्रत्येक सुखाभिलाषी पुरुष स्त्रीको पुस्तक पढ़ना चाहिए। मूल्य ॥
मिलनेका पता:जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय,
हीराबाग, पो० गिरगांव-बम्बई
For Personal & Private Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
SAGCOM
G500
TOS
जैनहितैषी। श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
१० वाँ भाग पौष, श्री०वी०नि० सं० २४४०। [३रा अंक।
वसन्त और बालक
सुन्दर सुखद वसन्त, नवल शोभा ले आया। सबके मन उत्साह; पड़ी ज्यों उसकी छाया ॥ चेतनकी क्या बात, रूख रूखे जड़ जो हैं। वे भी होकर सरस, प्रफुल्लित, मनको मोहैं । शान्तिपूर्ण ऋतुराजका, अब सुराज्य संस्थित हुआ। जड़ जाड़ेके जुल्मका, 'कम्प' आज प्रशमित हुआ।
(२) प्रथम हुआ पतझाड़, झड़पड़े पत्र पुराने । आये पल्लव नये, नम्रताको गुण जाने । ऊंचे होकर रहे नम्र, सम्मानित होंगे।
इन्हें देखकर लोग, परम आनन्दित होंगे। मंगलके हर काममें, सादर लाये जायेंगे। देखो देवस्थानमें, ललित लगाये जायेंगे ॥
For Personal & Private Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
( ३ )
कर्कश, कुटिल, न नम्र कर्मचारी सम सारेपदभ्रष्ट होगये पुराने पत्ते न्यारे ॥ देखो सुन्दर स्वच्छ हृदयके कोमल पल्लव, श्री- सम्पादन लगे वहीं पर करने अभिनव ॥ सुप्रबंधसे दूरकर, पक्षपात अविचारको । मानो इस ऋतुराजने, जमा लिया अधिकारको ॥ (४) प्यारे बालकवृन्द, कहो, क्या शिक्षा पाई ? नवपल्लव के सदृश बनोगे तुम सुखदाई ? ज्यों अपने सौन्दर्य और रंगीनीसे ही । खुश करते ये सभी जगतको, सहज सनेही ॥ वैसे ही तुम भी, कहो, पाकर गुणसम्पन्नतारूपरंगके ढंगसे, दोगे हमें प्रसन्नंता ?
(५) यथासमय ज्यों मुकुलपुंज, मंजुलता धारेखिलकर खुलकर हुए गन्धसे सबको प्यारे, निजविकास से जन्मभूमिको किया सुगंधित; वैसे ही तुम हृदय- कलीको करो सुविकसित ॥ विद्या - बुद्धि-चरित्रके शुद्ध प्रशस्त सुवाससेश्रेष्ठ बना दो देशको तुम हार्दिक उल्लाससे ॥ ( ६ ) देखो, पावन पवन, यथा वह गन्ध मनोहरदिग्दिगन्त में व्याप्त कर रहा, जाकर घर घर ॥ वैसे ही सबलोग तुम्हारे गुणगण गावें । सुयश तुम्हारा स्वयं जगत भर में फैलावें ॥ फूल, न चेष्टा कुछ करे, गुनगुन गुण गावें भ्रमर ।
तुम भी गुण-संग्रह करो, होगा सुयश स्वयं अमर ॥
For Personal & Private Use Only
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३१
(७) शिक्षा यह भी ग्रहण करो पतझाड़ देखकर। रह सकती है चीज़ कामहीकी निजपद पर । हुआ निकम्मा, वही गिरा, ज्यो पत्र पुराने । कर्मी इससे बनो; 'प्रकृति'को निजगुरु जाने ॥ स्वयं निकम्मे मत बनो औरोको उपदेश हो । कर्मनिष्ट उत्कर्षयुत, फिर भी अपना देश हो ॥
(८) देखो गति, कर्तव्यनिष्ट निरपेक्ष पवनकी । है न इसे कुछ चाह सुगन्धित इस उपवनकी ॥ तो भी गुणमें फँसी सुगन्ध न इसको छोडे ।
हो इसकी सहचरी आप ही नाता जोड़े॥ यश-लक्ष्मीकी लालसा छोड़, करो कर्तव्यको। भजती है वह आपही योग्यपुरुषको-भव्यको ॥
देखो, यह सहकार, मधुरतामयी सरसता
और श्रेष्ठताके घमंडसे भरा, दरसता ॥ फूल रहा है, और सफलताकी आशा पर-- बौराया है, यथा गुणी उद्धत कोई नर ॥ तुम पाकर कुछ योग्यता, या धनाढ्य होकर कभी, बनो न ऐसे बावले मिट्टी होंगे गुण सभी ॥
(१०) स्पष्टवादिता और मित्रका धर्म निभाता। यह कोकिल है धन्य, इसीसे आदर पाता ॥
वह रसालके पास बैठकर चिल्लाता है। 'कु-ऊ, कु-ऊ'* कह रहा, मित्रको समझाता है। स्वार्थी भ्रमरोके वृथा साधुवादमें पड़ अहह ! 'उसकी कुछ सुनता नहीं श्रीमदान्ध जड़ आम यह ॥ * अर्थात् यह बुरा है
For Personal & Private Use Only
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११) होगा क्या परिणाम, सुनो, सब फूल झड़ेंगे: यथासमय फल सभी भमिपर टपक पड़ेंगे। सुन्दरताके साथ मित्र भी त्याग करेंगे। जान वही जड़ रूख, न हम अनुराग करेंगे। इससे तुम निज मित्रकी सम्मतियोंपर कान दो अच्छे जो उपदेश हो, उनके ऊपर ध्यान दो।
वह अशोकका वृक्ष, शोकसे आप रहित है। और स्निग्धता-शीतलता-सौभाग्य-सहित है ।। छाया अपनी घनी सुविस्तृत करके वनमें करता सुखसञ्चार पथिक-आश्रितके मनमें । सबको, करे अशोक: यो शुभ शोभा रमणीय है। इसका पर-उपकार यह, सचमुच अनुकरणीय है ।
देखो फूलोंको, विचित्रता इनमें वह है: जो उन्नतिका मूलमन्त्र सुखका संग्रह है ॥ इन फूलोंमें अगर न होती यह विचित्रता।
जो आकार-आकारमें न होती विभिन्नता ! होते एकसमान जो रूप-रंगमें ये सभी। तो शोभासे विश्वको मुग्ध न करसकते कभी
हे विभिन्नता यद्यपि इनके रंग ढंगमें । पर सव है, उदेश्य एकसे, लगे संगमे । अपने अपने रूप-रंग-सोरभ-विलाससे।
जन्मभूमिको करें सुशोभित निज विकाससे ।। होनहार है वालको, ये जड़ है, पर धन्य है । जन्मभूमि-सेवा निरत, उसके भक्त अनन्य है ।।
For Personal & Private Use Only
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३३
( १५)
भिन्न वर्ण या भिन्नजातिके तुम भी सब हो । किन्तु तुम्हारा एक लक्ष्य हो, एकी ढब हो ॥ मुसलमान, या आर्य जैन, ईसाई, तुम हो। स्मरण रहे, इस जन्मभूमिमें भाई तुम हो॥ रूप-रंग-आकारमै भाषामें तुम भिन्न हो। जन्म-भूमि-सेवा करो; यह कर्तव्य अभिन्न हो ॥
-रूपनारायण पाण्डेय ।
ग्रन्थ-परीक्षा।
(२)
कुन्दकुन्द-श्रावकाचार। जैनियोंको भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका परिचय देनेकी जरूरत नहीं है । तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता श्रीमदुमास्वामी जैसे विद्वानाचार्य जिनके शिष्य थे, उन श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजके पवित्र नामसे जैनियोंका बच्चा बच्चातक परिचित है। प्रायः सभी नगर और ग्रामोंमें जैनियोंकी शास्त्रमभा होती है और उस सभामें सबसे पहले जो एक बृहत् मंगलाचरण (अकार ) पढ़ा जाता है, उसमें 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यः' इस पदके द्वारा आचार्य महोदयके शुभ नामका बराबर स्मरण किया जाता है। सच पूछिए तो, जैनसमाजमें, भगवान् कुन्दकुन्दस्वामी एक बड़े भारी नेता, अनुभवी विद्वान् और माननीय आचार्य होगये हैं। उनका अस्तित्व विक्रमकी पहली शताब्दीके लगभग माना जाता है । भगवत्कुंदकुंदाचार्यका सिक्का जैनसमाजके हृदयपर यहाँतक अंकित है कि बहुतसे ग्रंथकारोंने और खासकर भट्टारकोंने अपने आपको आपके ही वंशज प्रगट करनेमें अपना सौभाग्य और गौरव
For Personal & Private Use Only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
समझा है। बल्कि यों कहिए कि बहुतसे लोगोंको समाजमें काम करने और अपना उद्देश्य फैलानेके लिए आपके पवित्र नामका आश्रय लेना पड़ा है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि जैनियोंमें श्रीकुन्दकुन्द कैसे प्रभावशाली महात्मा होचुके हैं। भगवत्कुंदकुंदाचार्यने अपने जीवनकालमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंका प्रणयन किया है । और उनके ग्रंथ, जैनसमाजमें बड़ी ही पूज्यदृष्टि से देखे जाते हैं। समयसार. प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि ग्रंथ उन्हीं ग्रंथों में से हैं जिनक जैनसमाजमें सर्वत्र प्रचार है। आज इस लेखद्वारा जिस प्रथर्क परीक्षा की जाती है उसके साथ भी श्रीकुंदकंदाचार्यका नाम लगा हुआ है। यद्यपि इस ग्रंथका, समयसारादि ग्रंथोंके समान, जैनियाम सर्वत्र प्रचार नहीं है तो भी यह ग्रंथ जयपुर, बम्बई और महासभाके सरम्बन भंडार आदि अनेक भंडारों में पाया जाता है । कहा जाता है कि जत्र ग्रंथ (श्रावकाचार ) भी उन्हीं भगवत्कुंदकुंदाचार्यका बनाया हुआ है जो श्रीजिनचंद्राचार्य के शिष्य थे। और न सिर्फ कहा ही जाता है बल्कि खुद इस श्रावकाचारकी अनेक संधियों में यह प्रकट किया गया है कि यह ग्रंथ श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य कुदकुंदम्बामीका बनाया हुआ है। साथ ही ग्रंथके मंगलाचरणमें 'वन्दे जिनविधुं गुरम्' इस पदके द्वारा ग्रंथकर्त्ताने 'जिनचंद्र ' गुरुको नमस्कार करके और भी ज्यादह इस कथनकी रजिस्टरी कर दी है। परन्तु जिस समय इस ग्रंथके साहित्यकी जाँच की जाती है उस समय ग्रंथके शब्दों और अथों परसे कुछ और ही मामला मालूम होता है। श्वेताम्बर
१. कुन्दकुन्दस्वामी जिनचन्द्राचार्यके शिष्य थे और उमास्वामीके गुम कुन्दकुन्द थे, इस बातका अभीतक कोई शुढ प्रमाण नहीं मिला है। केवल एक पावके आधारसे यह बात कही जाती है। -सम्पादक।
For Personal & Private Use Only
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३५
सम्प्रदायमें श्रीजिनदत्तमरि नामके एक आचार्य विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें होगये हैं। उनका बनाया हुआ 'विवेक-विलास' नामका एक ग्रंथ है। सम्वत् १९५४ में यह ग्रंथ अहमदाबादमें गुजराती भाषाटीकासहित छपा था। और इस समय भी बम्बई आदि स्थानोंसे प्राप्त होता है। इस — विवेकविलास' और कुंदकुंदश्रावकाचार दोनों ग्रंथोंका मिलान करनेसे मालूम होता है कि, ये दोनों ग्रंथ वास्तवमें एक ही हैं और यह एकता इनमें यहाँतक पाई जाती है कि, दोनोंका विषय और विषयके प्रतिपादक श्लोक ही एक नहीं, बल्कि दोनोंकी उल्लाससंख्या, आदिम मंगलाचरण* और अन्तिम काव्य+ भी एक ही है। कहनेके लिए दोनों ग्रंथोंमें सिर्फ २०.-३० श्लोकोंका परस्पर हेरफेर है। और यह हेरफेर भी पहले, दूसरे, तीसरे, पाँचवें और आठवें उल्लासमें ही पाया जाता है। बाकी उल्लास (नं. ४, ६, ७, ९, १०, ११, १२) बिलकुल ज्यों के त्यों एक दूसरेकी प्रतिलिपि ( नकल ) मालूम होते हैं। प्रशस्तिको छोड़कर विवेकविलासकी पद्यसंख्या १३२१ और कुंदकुंदश्रावकाचारकी १२९४ है। विवेकविलासमें अन्तिम काव्यके बाद १० पद्योंकी एक 'प्रशस्ति' लगी हुई है, जिसमें जिनदत्तसूरिकी गुरुपरम्परा आदिका वर्णन है। *दोनों ग्रंथोंका आदिम मंगलाचरण:
" शाश्वतानन्दरूपाय तमस्तोमैकभास्वते ।
सर्वज्ञाय नमस्तस्मै कस्मैचित्परमात्मने ॥ १॥ ( इसके सिवाय मंगलाचरणके दो पद्य और है।) +दोनों ग्रंथोंका अन्तिम काव्यः--
" स श्रेष्ठः पुरुषाग्रणीः स सुभटोत्तंसः प्रशंसास्पदम्, स प्राज्ञः स कला निधिः स च मुनिः स क्ष्मातले योगवित् । स ज्ञानी स गुणिव्रजस्य तिलकं जानाति यः स्वां मृतिम् , निर्मोहः समुपार्जयत्यथ पदं लोकोत्तरं शाश्वतम् ॥ १२-१२ ॥"
For Personal & Private Use Only
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
परन्तु कुंदकुंदश्रावकाचारके अन्तमें ऐसी कोई प्रशस्ति नहीं पाई जाती है। दोनों प्रथोंके किस किस उल्लासमें कितने और कौनकौनसे पद्य एक दूसरेसे अधिक हैं, इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
उन पद्योंके
नम्बर जो उन पद्योंके नम्बर न कुंदकुंद श्रा. जो विवेक विलासमें उलास में अधिक अधिक हैं ।
कैफियत ( Remarks)
१६३ से ६९/८४ से ९८ तक कुंदकुंद श्रा० के ये ७१ श्लोक दन्त
तक और (१४ श्लोक) धावन प्रकरणके हैं। यह प्रकरण दोनों ७. का
ग्रंथोंमें पहलेसे शुरू हुआ और बादको भी पूर्वार्ध;
रहा है। किस किस काष्ठकी दतोंन कर(७३श्लोक)
नेसे क्या लाभ होता है, किस प्रकारसे दन्तधावन करना निषिद्ध है और किस वर्णके मनुष्यको कितने अंगुलकी दोंन व्यवहारमें लानी चाहिए; यही सब इन पद्योंमें वर्णित है। विवेकविलासके ये १४ श्लोक पूजनप्रकरणके हैं। और किस समय, कैसे द्रव्योंसे किस प्रकार पूजन करना चाहिए; इत्यादि वर्णनको लिये हुए हैं।।
२ ३३,३४, ३९ (१ श्लोक) कुंदकुंद श्रा० के दोनों श्लोकोंमें मूषका(२श्लोक)
दिकके द्वारा किसी वस्त्रके कटेफटे होनेपर छेदाकृतिसे शुभाशुभ जाननेका कथन है। यह कथन कई श्लोक पहलेसे चल रहा है। विवेकविलासका श्लोक नं. ३५ ताम्बूल प्रकरणका है जो पहलेसे चल रहा है।
१ श्लोक) भोजनप्रकरणमें एक निमित्तसे आयु
और धनका नाश मालूम करनेके सम्बंधमें।
For Personal & Private Use Only
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३७
५
x
१०, ११, ५७, पद्य नं. १०-११ में सोते समय ता-१४२, १४३, म्बूलादि कई वस्तुओंके त्यागका कारण| १४४, १४६, सहित उपदेश है; ५७ वाँ पद्य पुरुषपरी
१८८ से १९२ क्षामें हस्तरेखा सम्बंधी है। दोनों ग्रंथों में तक ( १२ श्लोक ) इस परीक्षाके ७५ पद्य और हैं; १४२,
१४३, १४४ में पद्मिनी आदि स्त्रियोंकी पहचान लिखी है। इनसे पूर्वके पद्यमें उनके नाम दिये हैं।१४६ में पतिप्रीति ही स्त्रियोंको कुमार्गसे रोकनेवाली है, इत्यादि. कथन है। शेष ५ पद्योंमें ऋतुकालके समय कौनसी रात्रिको गर्भ रहनेसे कैसी संतान उत्पन्न होती है, यह कथन पाँचवीं रात्रिसे १६ वीं रात्रिके सम्बंधमें है। इससे पहले चार रात्रियोंका कथन दोनों ग्रंथोंमें है।
८
२५३ ४९, ६०, ६१, २५३ वाँ पद्य ममिांसक मतके प्रकरण(१ श्लो. )७४, ८५, २५५, का है। इसमें ममिांसक मतके देवताके
२९३ का उत्तराध निरूपण और प्रमाणोंके कथनकी प्रतिज्ञा ३४३ का उत्तरार्ध, है, अगले पद्यमें प्रमाणोंके नाम दिये ३४४ का पूर्वाध, हैं । और दर्शनोंके कथनमें भी देवताका ३६६ का उत्तरार्ध, वर्णन पाया जाता है। पद्य नं. ४९ में ३६७ का पूर्वाध, अल्पवृष्टिका योग दिया है; ६० में किस ४२० के अन्तिम किस महीने में मकान बनवानेसे क्या लाभ तीन चरण और हानि होती है; ६१ में कौनसे नक्षत्रमें ४२१ का पहला घर बनानेका सूत्रपात करना; ७४ में चरण; यक्षव्ययके अष्ट भेद, इससे पूर्वके पद्यमें | (९३ श्लोक ) यक्षव्यय अष्ट प्रकारका है ऐसा दोनों
ग्रंथों में सूचित किया हैं, ८५ वाँ पद्य 'अपरं च' करके लिखा है; ये चारों पद्य गृहनिर्माण प्रकरणके हैं। २५५ वाँ पद्य जनदर्शन प्रकरणका है। इसमें श्वेताम्बर साधुओंका स्वरूप दिया है । इससे अगले पद्यमें दिगम्बर साधुओंका स्वरूप है।
For Personal & Private Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
२९३ वाँ पद्य शिवमतके प्रकरणका है। उत्तरार्धके न होनेसे साफ अधूरापन प्रगट है। क्योंकि पूर्वार्धमें नव द्रव्योंमेंसे चारके नित्यानित्यत्वका वर्णन है बाकीका वर्णन उत्तरार्धमें है। शेष पद्योंका वर्णन आगे दिया जायगा।
ऊपरके कोष्टकसे दोनों ग्रंथोंमें पद्योंकी जिस न्यूनाधिकताका बोध होता है, बहुत संभव है कि वह लेखकोंकी कृपा ही का फल हो-जिस प्रतिपरसे विवेकविलास छपाया गया है और जिस प्रतिपरसे कुंदकुंदश्रावकाचार उतारा गया है, आश्चर्य नहीं कि उनमें या उनकी पूर्व प्रतियोंमें लेखकोंकी असावधानीसे ये सब पद्य छूट गये हों-क्योंक पद्योंकी इस न्यूनाधिकतामें कोई तात्विक या सैद्धान्तिक विशेषता नहीं पाई जाती । बल्कि प्रकरण और प्रसंगको देखते हुए इन पद्योंके छूट जानेका ही अधिक खयाल पैदा होता है । दोनों ग्रंथोंसे लेखकोंके प्रमादका भी अच्छा परिचय मिलता है । कई स्थानोंपर कुछ श्लोक आगे पीछे पाये जाते हैं-विवेकविलासके तीसरे उल्लासमें जो पद्य नं. १७,१८ और ६२ पर दर्ज हैं वे ही पद्य कुंदकुंद श्रावकाचारमें क्रमशः नं. १८,११ और ६० पर दर्ज हैं । आठवें उल्लासमें जो पद्य नं. ३१७-३१८ पर लिखे हैं वे ही पद्य कुंदकुंदश्रावकाचारमें क्रमश: नं. ३११-३१० पर पाये जाते हैं अर्थात् पहला श्लोक पीछे और पीछेका पहले लिखा गया है । कुंदकुंदश्रावकाचारके-तीसरे उल्लासमें श्लोक नं. १६ को 'उक्तं च' लिखा है और ऐसा लिखना ठीक भी है; क्योंकि यह पद्य दूसरे ग्रंथका है और इससे पहला पद्य नं० १५ भी इसी अभिप्रायको लिये हुए है। परन्तु विवेकविलासमें इसे 'उक्तं च' नहीं लिखा।
For Personal & Private Use Only
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३९
इसी प्रकार कहीं कहीं पर एक ग्रंथमें एक श्लोकका जो पूर्वार्ध है वही दूसरे ग्रंथमें किसी दूसरे श्लोकका उत्तरार्ध हो गया है। और कहीं कहीं एक श्लोकके पूर्वार्धको दूसरे श्लोकके उत्तरार्धसे मिलाकर एक नवीन ही श्लोकका संगठन किया गया है। नीचेके उदाहरणोंसे इस विषयका और भी स्पष्टीकरण हो जायगा:
(१) विवेकविलासके आठवें उल्लासमें निम्नलिखित दो पद्य दिये
" हरितालप्रभैश्चक्री नेत्रैनीलैरहं मदः। रक्तैर्नृपः सितैर्ज्ञानी मधुपि.महाधनः ॥३४३॥ सेनाध्यक्षो गजाक्षः स्याद्दीर्घाक्षश्विर जीवितः ।
विस्तीर्णाक्षो महाभोगी कामी पारावतेक्षणाः॥३४४॥" इन दोनों पद्योंमेंसे एकमें नेत्रके रंगकी अपेक्षा और दूसरेमें आकार विस्तारकी अपेक्षा कथन है । परन्तु कुंदकुंदश्रावकाचारमें पहले पद्यका पूर्वार्ध और दूसरेका उत्तरार्ध मिलाकर एक पद्य दिया है जिसका नं. ३३६ है। इससे साफ प्रगट है कि बाकी दोनों उत्तरार्ध और पूर्वार्ध छूट गये हैं।
(२) विवेकविलासके इसी आठवें उल्लासमें दो पद्य इस प्रकार.
"नद्याः परतटागोष्टाक्षीरद्रोः सलिलाशयात् । निर्वर्त्ततात्मनोऽभीष्टाननुव्रज्य प्रवासिनः ॥३६६॥ नासहायो न चाज्ञातै नैव दासैः समं तथा ।
नाति मध्यं दिनेनार्धरात्रौ मार्गे बुधो व्रजेत् ॥ ३६७॥" ... इन दोनों पद्यों से पहले पद्यमें यह वर्णन है कि यदि कोई अपना इष्टजन परदेशको जावे तो उसके साथ कहाँ तक जाकर लौट आना
For Personal & Private Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
चाहिए। और दूसरेमें यह कथन है कि मध्याह्न और अर्ध रात्रिके समय विना अपने किसी सहायकको साथ लिये, अज्ञात मनुष्यों तथा गुलामोंके साथ मार्ग नहीं चलना चाहिए । कुंदकुंदश्रावकाचारमें इन दोनों पद्योंके स्थानमें एक पद्य इस प्रकारसे दिया है:
__“ नद्याः परतटागोष्ठात्क्षीरद्रोः सलिलाशयात् ।
नातिमध्यं दिने नार्धं रात्रौ मार्ग बुधो व्रजेत् ॥३६८॥ .. यह पद्य बड़ा ही विलक्षण मालूम होता है । पूर्वार्धका उत्तरार्धसे कोई सम्बध नहीं मिलता, और न दोनोंको मिलाकर एक अर्थ ही निकलता है । इससे कहना होगा कि विवेकविलासमें दिये हुए दोनों उत्तरार्ध और पूर्वार्ध यहाँ छूट गये हैं और तभी यह असमंजसता प्राप्त हुई है । विवेकविलासके इसी . उल्लाससंबंधी पद्य नं. ४२०
और ४२१ के सम्बन्धमें भी ऐसी ही गड़बड़ की गई है । पहले. 'पद्यके पहले चरणको दूसरे पद्यके अन्तिम तीन चरणोंसे मिलाकर एक पद्य बना डाला है; बाकी पहले पद्यके तीन चरण और दूसरे पद्यका पहला चरण; ये सब छूट गये हैं। लेखकोंके प्रमादको छोड़कर, 'पद्योंकी इस घटा बढीका कोई दूसरा विशेष कारण मालूम नहीं होता । प्रमादी लेखकों द्वारा इतने बड़े ग्रंथोंमें दस बीस पद्योंका छूट जाना तथा उलट फेर हो जाना कुछ भी बड़ी बात नहीं है। इसी लिए ऊपर यह कहा गया है कि ये दोनों ग्रंथ वास्तवमें एक ही हैं। दोनों ग्रंथों में असली फर्क सिर्फ ग्रंथ और ग्रंथकर्ताके नामोंका है-विवेकविलासकी संधियोंमें ग्रंथका नाम 'विवेकविलास ' और ग्रंथकर्ताका नाम 'जिनदत्तसूरि ' लिखा है। कुंदकुंदश्रावकाचारकी संधियोंमें ग्रंथका नाम 'श्रावकाचार ' और ग्रंथकर्ताका नाम कुछ संधियोंमें ' श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य कुन्दकुन्दस्वामी ' और शेष
For Personal & Private Use Only
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
संधियोंमें केवल 'कुन्दकुन्द स्वामी' दर्ज है---इसी फर्कके कारण प्रथम उल्लासके दो पद्योंमें इच्छापूर्वक परिवर्तन भी पाया जाता है। विवेकविलासमें वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं:
“जीववत्प्रतिभा यस्य वचोमधुरिमां चितम् । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं वंदे सूरिवरं गुरुम् ॥३॥ स्वस्यानस्यापि पुण्याय कुप्रवृत्तिनिवृत्तये ।
श्रीविवेकविलासाख्यो ग्रंथः प्रारभ्यते मितः ॥४॥" इन दोनों पद्योंके स्थानमें कुंदकुंदश्रावकाचारमें ये पद्य हैं:
"जीववत्प्रतिभा यस्य वचो मधुरिमांचितम् । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं वंदे जिनविधुं गुरुम् ॥३॥ स्वस्यानस्यापि पुण्याय कुप्रवृत्तिनिवृत्तये ।
श्रावकाचारविन्यासग्रंथः प्रारभ्यते मितः ॥ ४॥" दोनों ग्रंथोंके इन चारों पद्योंमें परस्पर ग्रंथ नाम और ग्रंथकर्ताके गुरुनामका ही भेद है। समूचे दोनों ग्रंथोंमें यही एक वास्तविक भेद पाया जाता है। जब इस नाममात्रके ( ग्रंथनाम--ग्रंथकर्तानामके ) भेदके सिवा और तौर पर ये दोनों ग्रंथ एक ही हैं तब यह जरूरी है कि इन दोनोंमेंसे, उभयनामकी सार्थकता लिये हुए, कोई एक ग्रंथ ही असली हो सकता है; दूसरेको अवश्य ही नकली या बनावटी कहना होगा। ___ अब यह सवाल पैदा होता है कि इन दोनों ग्रंथोंमेंसे असली कौन है और नकली बनावटी कौनसा? दूसरे शब्दोमें यों काहिए कि क्या पहले कुंदकुंदश्रावकाचार मौजूद था और उसकी संधियों तथा दो पद्योंमें नामादिकका परिवर्तनपूर्वक नकल करके जिनसूरि या उनके नामसे किसी दूसरे व्यक्तिने उस नकलका नाम
For Personal & Private Use Only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
' विवेकविलास' रक्खा है; और इस प्रकारसे दूसरे विद्वानके इस ग्रंथको अपनाया है अथवा पहले विवेकविलास ही मौजूद था और किसी व्यक्तिने उनकी इस प्रकारसे नकल करके उसका नाम
6
कुंदकुंद श्रावकाचार ' रख छोड़ा है; और इस तरहपर अपने क्षुद्र विचारोंसे या अपने किसी गुप्त अभिप्रायकी सिद्धिके लिए इस भगवत्कुंदकुंदके नामसे प्रसिद्ध करना चाहा है ।
"
यदि कुंदकुंदश्रावकाचारको वास्तवमें जिनचंद्राचार्यके शिष्य श्रीकुंदकुंदस्वामीका बनाया हुआ माना जाय, तब यह कहना, ही होगा कि विवेकविलास उसी पर से नकल किया गया है । क्यों कि भगवत्कुंदकुंदाचार्य जिनदत्तसूरिसे एक हजार वर्ष से भी अधिक काल पहले हो चुके हैं । परन्तु ऐसा मानने और कहने का कोई साधन नहीं है । कुंदकुंदश्रावकाचार में श्रीकुंदकुंदस्वामी और उनके गुरुका नामोल्लेख होनेके सिवा और कहीं भी इस विषयका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, जिससे निश्चय किया जाय कि यह ग्रंथ वास्तव में भगवत्कुंदकुंदाचार्यका ही बनाया हुआ है । कुंदकुंदस्वामी के बाद होनेवाले किसी भी माननीय आचार्यकी कृतिमें इस श्रावकाचारका कहीं नामोलेख तक नहीं मिलता; प्रत्युत इसके विवेकविलासका उल्लेख जरूर पाया जाता है। जिनदत्तसूरिके समकालीन या उनसे कुछ ही काल बाद होने वाले वैदिकधर्मावलम्बी विद्वान् श्रीमाधवाचार्यने अपने सर्वदर्शनसंग्रह ' नामके ग्रंथमें विवेकविलासका उल्लेख किया है और उसमें बौद्धदर्शन तथा आर्हतदर्शनसम्बंधी २३ श्लोक विवेकविलास और जिदत्तसूरिके हवाले से उद्धृत किये हैं । ये सब श्लोक
4
१ देखो ' सर्वदर्शनसंग्रह ' पृष्ट ३८-७२ श्रीव्यंकटेश्वरछापखाना बम्बई द्वारा संवत् १९६२ का छपा हुआ ।
For Personal & Private Use Only
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
कन्द कुन्द श्रावकाचार में भी मौजूद हैं। इसके सिवा विवेकविलासकी एक • चार पाचसा वपर्का लिखी हुई प्राचीन प्रति बम्बईके जनमंदिरमें मोजद है । * परन्तु कुंद कुंदश्रावकाचारकी कोई प्राचीन प्रति नहीं मिलती । इन सब बातोंको होड कर, खुद ग्रंथका साहित्य भी इस वातका साक्षी नहीं है कि यह ग्रंथ भगवत्कुंदकुंदाचार्यका बनाया हुआ है। कुदकुदस्वामीकी लेखनप्रणाली उनकी कथन शैली-कुछ और ही ढंगी है; और उनके विचार कुछ और ही छटाको लिये हुए होते है । भगवकुंद्रकुंदके जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हुए हैं वे सब प्राकृत भाषा में है ! परन्तु इन श्रावकाचारकी भाषा संस्कृत है; समझमें नहीं आता कि जब भगवत्कटकुंदने बारीकसे बारीक, गूढसे गूढ़ और मुगम ग्रंथोंको भी प्राकृत भाषामें रचा है, जो उस समयके लिए
योगी गापा थी तब वे एक इमी, माधारण गृहस्थोंके लिए बनाये हए, प्रथको संस्कृत भाषामें क्यों रचतेपरन्तु इसे रहने दीजिए । जैन समा जग आजकाट जो भगवत्कुंदकुंदके निर्माण किये हुए समयसार, प्रवचनमारादि ग्रंथ प्रचलित है उनमें किसी भी ग्रंथकी आदिमें कुंदकुंद म्वामीने अपने गुम जिनचंद्राचार्य ' को नमस्काररूप मंगलाचरण नहीं किया है। परन्तु श्रावकाचारके, ऊपर उद्धृत किये हुए, तीसरे पद्यों ‘वन्द जिनविधं गुरुम् इस पदके द्वारा जिनचंद्र' गुरुको नमस्कार रूप मंगलाचरण पाया जाता है । कुंदकुंदस्वामीके ग्रंथोंमें आम तौर पर एक पद्यका मंगलाचरण है। सिर्फ 'प्रवचनसार ' में पाँच पद्योंका मंगलाचरण मिलता है। परन्तु इस पाँच पद्यों के विशप मंगलाचरणमें भी जिनचंद्रगरुको नमस्कार नहीं किया
विवेकविलापको इस प्राचीन प्रतिका समाचार अभी हालमें मुझे अपने एक मित्र द्वारा मालूम हुआ है ।
For Personal & Private Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
गया है। यह विलक्षणता इसी श्रावकाचारमें पाई जाती है । रही मंगलाचरणके भाव और भाषाकी बात, वह भी उक्त आचार्यके किसी ग्रंथसे इस श्रावकाचारकी नहीं मिलती। विवेकविलासमें भी यही पद्य । है; भेद सिर्फ इतना है कि उसमें ' जिनविधुं , के स्थानमें 'सुरिवरं' लिखा है । जिनदत्तसूरिके गुरु ' जीवदेव , का नाम इस पद्यके चारों चरणोंके प्रथमाक्षरोंको मिलानेसे निकलता है । यथाःजीववत्प्रतिभा यस्य, वचा मधुरिमाचितम्राजी +व+दे+व-जीवदेव । देहं गेहं श्रियस्तं स्वं, वन्दे सूरिवरं गुरुम् ॥ ३॥ बस, इतनी ही इस पद्यमें कारीगरी (रचनाचातुरी) रखी गई है।
और तौरपर इसमें कोई विशेष गौरवकी बात नहीं पाई जाती। विवेकविलासके भाषाकारने भी इस रचनाचातुरीको प्रगट किया है । इससे यह पद्य कुंदकुंदस्वामीका बनाया हुआ न होकर जीवदेवके शिष्य जिनदत्तसूरिका ही बनाया हुआ निश्चित होता है। अवश्य ही कुंदकुंद.. श्रावकाचारमें 'सूरिवरं ' के स्थानमें 'जिनविधु'की बनावट की गई है। इस बनावटका निश्चय और भी अधिक दृढ होता है जब कि दोनों ग्रंथोंके, उद्धृत किए हुए, पद्य नं. ९ को देखा जाता है। इस पद्यमें ग्रंथके नामका परिवर्तन है--विवेकविलासके स्थानमें 'श्रावकाचार' बनाया गया है-वास्तवमें यदि देखा जाय तो यह ग्रंथ कदापि 'श्रावकाचार' नहीं हो सकता। श्रावककी ११ प्रतिमाओं और १२ व्रतोंका वर्णन तो दूर रहा, इस ग्रंथमें उनका नाम तक भी नहीं है । भगवत्कुंदकुंदने स्वयं षट् पाहुड़के अंतर्गत 'चरित्र पाहुड में ११ प्रतिमा
For Personal & Private Use Only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
101
और १२ व्रतरूप श्रावकधर्मका वर्णन किया है। और इस कथनके अन्तकी २७ वी गाथामें, ' एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं' इस वाक्यके द्वारा इसी ( ११ प्रतिमा १२ व्रतरूप संयमाचरण)को श्रावकधर्म बतलाया है। परन्तु वे ही कुंदकुंद अपने श्रावकाचारमें जो खास श्रावकधर्मके ही वर्णनके लिए लिखा जाय उन ११ प्रतिमादिकका नाम तक भी न देवें, यह कभी हो नहीं सकता। इससे साफ प्रगट है कि यह ग्रन्थ श्रावकाचार नहीं है, बल्कि विवेकविलासके उक्त ९ पद्यमें 'विवेकविलासाख्यः ' इस पदके स्थानमें 'श्रावकाचारविन्यास' यह पद रखकर किसीने इस ग्रंथका नाम वैसे ही श्रावकाचार रख छोडा है । अब पाठकोंको यह जाननेकी ज़रूर उत्कंठा होगी कि जब इस ग्रंथमें श्रावकधर्मका वर्णन नहीं है तब क्या वर्णन है ? अतः इस ग्रंथमें जो कुछ वर्णित है, उसका दिग्दर्शन 'नीचे कराया जाता है:
" सेबेरे उठनेकी प्रेरणा; स्वप्नविचार; स्वरविचार; सबेरे पुरुषोंको अपना दाहिना और स्त्रियोंको बायाँ हाथ देखना; मलमूत्र त्याग और गुदादि प्रक्षालनविधि; दन्तधावनविधि; सबेरे नाकसे पानी पीना; तेलके कुरले करना; केशोंका सँवारना; दर्पण देखना; मातापितादिककी भक्ति और उनका पालन; देहली आदिका पूजन; दक्षिण वाम स्वरसे प्रश्नोंका उत्तरविधान; सामान्य उपदेश; चंद्रबलादिकके विचार कर. नेकी प्रेरणा; देवमूर्तिके आकारादिका विचार; मंदिरनिर्माणविधि; भूमिपरीक्षा; काष्ठपाषाणपरीक्षा; स्नानविचार; क्षौरकर्म (हजामत) विचार; वित्तादिकके अनुकूल शृंगार करनेकी प्रेरणा; नवीनवस्त्रधारणविचार; ताम्बूल भक्षणकी प्रेरणा और विधि; खेती, पशुपालन और अन्नसंग्रहादिकके द्वारा धनोपार्जनका विशेष वर्णन; वणिकव्यवहारविधि;
For Personal & Private Use Only
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
राज्यसेवा; राजा, मंत्री, सेनापति और सेवकका स्वरूपवर्णन; व्यवसाय महिमा; देवपूजा; दानकी प्रेरणा; भोजन कब, कैसा, कहाँ और किस प्रकार करना न करना आदि; समय मालूम करनेकी विधि, भोजनमें विषकी परीक्षा; आमदनी और खर्च आदिका विचार करना; संध्यासमय निषिद्ध कर्म; दीपकशकून; रात्रिको निषिद्ध कर्म; कैसी चारपाई पर किस प्रकार सोना; वरके लक्षण; वधूके लक्षण; सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शरीरके अंगोपांग तथा हस्तरेखादिकके द्वारा पुरुषपरीक्षा और स्त्रीपरीक्षाका विशेष वर्णन लगभग १०० श्लोकोंमें; विषकन्याका लक्षण; किस स्त्रीको किस दृष्टिसे देखना; त्याज्य स्त्रियाँ; स्त्रियोंके पद्मिनी, संखिनी आदि भेद; स्त्रियोंका वशीकरण; सुरतिके चिह्न ऋतुभेदसे मैथुनभेद; स्त्रियोंसे व्यवहार; प्रेम टूटनेके कारण; पतिसे विरक्त स्त्रियोंके लक्षण; कुलस्त्रीका लक्षण और कर्त्तव्य; रजस्वलाका व्यवहार; मैथुनविधि; वीर्यवर्धक पदार्थोके सेवनकी प्रेरणा; गर्भ में बालकके अंगोपांग बननेका कथन, गर्भस्थित बालकके स्त्रीपुरुष नपुंसक होनेकी पहचान; जन्ममुहूर्तविचार, बालकके दाँत निकलनेपर शुभाशुभविचार; निद्राविचार; ऋतुचर्या; वार्षिक श्राद्ध करनेकी प्रेरणा; देश और राज्यका विचार; उत्पातादि निमित्त विचार, वस्तुकी तेजी मंदी जाननेका विचार; ग्रहोंका योग, गति और फल विचार; गृहनिर्माणविचार; गृहसामग्री और वृक्षादिकका विचार; विद्यारंभके लिए नक्षत्रादि विचार; गुरुशिष्यलक्षण और उनका व्यवहार; कौन कौन विद्यायें और कलायें सीखनी; विषलक्षण तथा सर्पादिकके छूनेका निषेध; सर्पादिक दुष्ट मनुष्यके विष दूर होने न होने आदिका विचार और चिकित्सा (८५ श्लोकोंमें ); षट्दर्शनोंका वर्णन; सविवेक वचनविचार; किस किस वस्तुको देखना और किसको
For Personal & Private Use Only
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
नहीं; दृष्टिविचार और नेत्रस्वरूपविचार, चलने फिरनेका विचार; नीतिका विशेषोपदेश ( ६५ श्लोकोंमें ), पापके काम और क्रोधादिके त्यागका उपदेश; धर्म करनेकी प्रेरणा; दान, शील, तप और १२ भावनाओंका संक्षिप्त कथन; पिंडस्थादिध्यानका उपदेश; ध्यानकी साधकसामग्री; जीवात्मासंबंधी प्रश्नोत्तर, मृत्युविचार और विधिपूर्वक शरीरन्यागकी प्रेरणा।"
यही सब इस ग्रंथकी संक्षिप्त विषय-सूची है। संक्षेपसे, इस ग्रंथमें सामान्यनीति, वैद्यक, ज्योतिष, निमित्त, शिल्प और सामुद्रकादि शास्त्रोंके कथनोंका संग्रह है । इससे पाठक खुद समझ सकते हैं कि यह ग्रंथ असलियतमें ' विवेकविलास' है या 'श्रावकाचार' । यद्यपि इस विषयसूचीस पाठकोंको इतना अनुभव जरूर हो जायगा कि इस
कारके कथनोंको लिये हुए यह ग्रंथ भगवत्कुंदकुंदाचार्यका बनाया हुआ नहीं हो सकता। क्योंकि भगवत्कुंदकुंद एक ऊँचे दर्जेके आत्मा
नुभवी साधु और संसारदेहभोगोंसे विरक्त महात्मा थे और उनके किसी भी प्रसिद्ध ग्रंथसे उनके कथनका ऐसा ढंग नहीं पाया जाता है । परन्तु फिर भी इस नाममात्र श्रावकाचारके कुछ विशेष कथनोको, नमुनेके तौरपर, नीचे दिग्वलाकर और भी अधिक इस बातको स्पष्ट किये देता हूँ कि यह ग्रंथ भगवत्कुंदकुंदाचार्यका बनाया हुआ नहीं है:--
(१) भगवत्कुंदकुंदाचार्य के ग्रंथों में मंगलाचरणके साथ या उसके अनन्तर ही ग्रंथकी प्रतिज्ञा पाई जाती है और ग्रंथका फल तथा आशीर्वाद, यदि होता है तो वह, अन्तमें होता है। परन्तु इस ग्रंथके कथनका कुछ ढंग ही विलक्षण है। इसमें पहले तीन पद्योंमें तो मंगलाचरण विाया गया; चौथे पद्यमें ग्रंथका फल, लक्ष्मीकी प्राप्ति
For Personal & Private Use Only
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
आदि बतलाते हुए ग्रंथको आशीर्वाद दिया गया; पांचवें में लक्ष्मीको चंचल कहनेवालोंकी निन्दा की गई; छट्ठे सातवेंमें लक्ष्मीकी महिमा और उसकी प्राप्तिकी प्रेरणा की गई; आठवें नौवेंमें. (इतनी दूर आकर ) ग्रंथकी प्रतिज्ञा और उसका नाम दिया गया है; दसवेंमें यह बतलाया है कि इस ग्रंथमें जो कहीं कहीं ( ? ) प्रवृत्तिमार्गका वर्णन किया गया है वह भी विवेकी द्वारा आदर किया हुआ निर्वृत्तिमार्ग में जा मिलता है; ग्यारहवें बारहवेंमें फिर ग्रंथका फल और एक बृहत् आशी - र्वाद दिया गया है; इसके बाद ग्रंथका कथन शुरू किया है। इस प्रकारका अक्रम कथन पढ़नेमें बहुत ही खटकता है और वह कदापि भगवत्कुंदकुंदका नहीं हो सकता। ऐसे और भी कथन इस ग्रंथ में पाये जाते हैं। अस्तु । इन पद्योंमेंसे पाँचवाँ पद्य इस प्रकार है:चंचलत्वं कलंक ये श्रियो ददति दुर्धियः ।
ते मुग्धाः स्वं न जानन्ति निर्विवेकमपुण्यकम् ॥ ५ ॥ अर्थात् - जो दुर्बुद्धि लक्ष्मपर चंचलताका दोष लगाते हैं वे मूढ़ यह नहीं जानते हैं कि हम खुद निर्विवेकी और पुण्यहीन हैं । भावार्थ, जो लक्ष्मीको चंचल बतलाते हैं वे दुर्बुद्धि, निर्विवेकी और पुण्यहीन हैं।
पाठकगण ! क्या अध्यात्मरसके रसिक और अपने ग्रंथोंमें स्थान स्थानपर दूसरोंको शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्ति करनेका हार्दिक प्रयत्न करनेवाले महर्षियों के ऐसे ही वचन होते हैं ? कदापि नहीं । भगवत्कुंदकुंद तो क्या सभी आध्यात्मिक आचार्योंने लक्ष्मीको 'चंचला ' 'चपला, ' ' इन्द्रजालोपमा, ' ' क्षणभंगुरा,' इत्यादि विशेषणोंके साथ वर्णन किया है । नीतिकारोंने भी ' चलालक्ष्मीश्चलाः प्राणाः ....' इत्यादि वाक्योंद्वारा ऐसा ही प्रतिपादन किया है और वास्तवमें लक्ष्मीका स्वरूप है भी ऐसा ही । फिर इस कहने में दुर्बुद्धि
For Personal & Private Use Only
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४९
और सूटताकी बात ही कौनसी हुई, यह कुछ समझ में नहीं आता । यहाँपर पाठकों के हृदय में यह प्रश्न जरूर उत्पन्न होगा कि जब ऐसा हैं तब जिनदत्तसूरिने ही क्यों इस प्रकारका कथन किया है ? इसका उत्तर सिर्फ इतना ही हो सकता है कि इस बातको तो जिनदत्त - मर ही जानें कि उन्होंने क्यों ऐसा वर्णन किया है । परन्तु ग्रंथके अंतमें दी हुई उनकी ' प्रशस्ति' से इतना ज़रूर मालूम होता है कि उन्होंने यह ग्रंथ जाबालि - नगराधिपति उदयसिंह राजाके मंत्री देवपाल के पुत्र धनपालको खुश करने के लिए बनाया था । यथा:
" तन्मनः तोपपोपाय जिनाद्यैर्दत्तसूरिभिः । श्रीविवेकविलासाख्यो ग्रंथोऽयं निर्ममेऽनघः ॥ ९ ॥ शायद इस मंत्रीमुतकी प्रसन्नता के लिए ही जिनदत्तसूरिको ऐसा लिखना पड़ा हो । अन्यथा उन्होंने खुद दसवें उल्लासके पद्य नं ० ३१ में धनादिकको अनित्य वर्णन किया है ।
(२) इस ग्रंथ के प्रथम उल्लास में जिनप्रतिमा और मंदिर के निर्माणका वर्णन करते हुए लिखा है कि गर्भगृह के अर्थभागके भित्तिद्वारा पाँच भाग करके पहले भाग में यक्षादिक की दूसरे भाग में सर्व देवियोंकी; तीसरे भाग में जितेंद्र, सूर्य, कार्तिकेय और कृष्ण की; चौथे भागमें ब्रह्माकी और पाँचवें भाग में शिवलिंग की प्रतिमायें स्थापन करनी चाहिये । यथा: - प्रासादगर्भगेहार्द्धं भित्तितः पंचधा कृते ।
"
यक्षाद्याः प्रथमे भागे देव्यः सर्वा द्वितीयके ॥ १४८ ॥ जिना कस्कन्दकृष्णानां प्रतिमा स्युस्तृतीयके । ब्रह्मा तु तुर्यभागे स्यालिंगमीशस्य पंचमे ॥ १४९ ॥ यह कथन कदापि भगवत्कुंदकुंदका नहीं हो सकता । न जैनमतका ऐसा विधान है और न प्रवृत्ति ही इसके अनुकूल पाई जाती है। श्वेताम्बर जैनियोंके मंदिरोंमें भी यक्षादिकको छोड़कर महादेव के लिंगकी
For Personal & Private Use Only
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
स्थापना तथा कृष्णादिककी मूर्तियाँ देखने में नहीं आतीं। शायद यह कथन भी जिनदत्तसूरिने मंत्रीसुतकी प्रसन्नता के लिए, जिसे प्रशस्तिके सातवें पद्यमें सर्व धर्मोंका आधार बतलाया गया है, लिख दिया हो । ( ३ ) इस ग्रंथके दूसरे उल्लासका एक पद्य इस प्रकार है:" साध्वर्थे जीवरक्षायै गुरुदेव गृहादिषु । मिथ्याकृतैरपि नृणां शपथैर्नास्ति पातकम् ॥ ६९ ॥
इस पद्यमें लिखा है कि साधुके वास्ते, और जीवरक्षा के लिए गुरु तथा देवके मंदिरादिकमें झूठी कसम ( शपथ ) खानेसे कोई पाप नहीं लगता । यह कथन जैन सिद्धान्तके कहाँ तक अनुकूल है यह विचारणीय है ।
( ४ ) आठवें उल्लास में ग्रंथकार लिखते हैं कि बहादुरीसे, तपसे, विद्यासे या धनसे अत्यंत अकुलीन मनुष्य भी क्षणमात्रमें कुलीन हों जाता है । यथा:
८८
शौर्येण वा तपोभिर्वा विद्यया वा धनेन वा । अत्यन्तमकुलीनोऽपि कुलीनो भवति क्षणात् ॥ ३९१ ॥” मालूम नहीं होता कि आचारादिकको छोड़कर केवल बहादुरी, विद्या या धनका कुलीनता से क्या संबंध है और किस सिद्धान्तपर यह कथन अवलम्बित है ।
—
(५) दूसरे उल्लास में ताम्बूलभक्षणकी प्रेरणा करते हुए लिखा है कि
" यः स्वादयति ताम्बूलं वक्रभूषाकरं नरः ।
तस्य दामोदरस्येव न श्रीस्त्यजति मंदिरम् ॥ ३९ ॥
अर्थात् — जो मनुष्य मुखकी शोभा बढ़ानेवाला पान चबाता है। उसके घरको लक्ष्मी इस प्रकार से नहीं छोड़ती जिस प्रकार वह श्री.
For Personal & Private Use Only
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृष्णको नहीं छोडती । भावार्थ, पान चबानेवाला मनुष्य कृष्णजीके समान लक्ष्मीवान् होता है।
यह कथन भी जैनमतके किसी सिद्धान्तसे सम्बंध नहीं रखता और न किसी दिगम्बर आचार्यका ऐसा उपदेश हो सकता है। आजकल बहुतसे मनुष्य रात दिन पान चबाते रहते हैं परन्तु किसीको भी श्रीकृष्णके समान लक्ष्मीवान् होते नहीं देखा ।
(६) ग्यारहवें उल्लासमें ग्रंथकार लिखते हैं कि जिस प्रकार बहुतसे वाकी गौओंमें दुग्ध एक ही वर्णका होता है उसी प्रकार सर्व धर्मों में तत्त्व एक ही है । यथा___ “ एकवर्ण यथा दुग्धं बहुवर्णासु धेनुषु ।
तथा धर्मस्य वैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं पुनः ॥ ७३ ॥ , यह कथन भी जैनसिद्धान्तके विरुद्ध है । भगवत्कुंदकुंदके ग्रंथोंसे इसका कोई मेल नहीं मिलता । इसलिए यह कदापि उनका नहीं हो सकता।
(७) पहले उल्लासमें एक स्थानपर लिखा है कि जिस मंदिर पर ध्वजा नहीं है उस मंदिर में किये हुए पूजन, होम और जपादिक सब ही विलुप्त हो जाते हैं: अर्थात् उनका कुछ भी फल नहीं होता। यथा:---
“ प्रासादे ध्वजनिमुक्ते पूजाहोमजपादिकम् । सर्व विलप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यों ध्वजाच्छयः ॥ १७१ ॥ यह कथन बिलकुल युक्ति और आगमके विरुद्ध है। इसको मानते हुए जैनियोंको अपनी कर्मफिलासोफीको उठाकर रख देना होगा।
उमास्वामिश्रावकाचारमें भी यह पद्य आया है। इस ग्रंथपर जो लेख : नं० १ इससे पहले दिया गया है उसमें इस पद्यपर विशेष लिखा • जा चुका है। इस लिए अब पुनः अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं है।
For
For Personal & Private Use Only
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८) ग्रंथकार महाशय एक स्थानपर लिखते हैं कि-कपट करके भी यदि निःस्पृहत्व प्रगट किया जाय तो वह फलका देनेवाला होता है। यथाः- .
. " नराणां कपटेनापि निःस्पृहत्वं फलप्रदम् ॥ ८-३९६ ( उत्तरार्ध) ___ इस कथनसे कपट और बनावटका उपदेश पाया जाता है । इतना नीचा और गिरा हुआ उपदेश भगवत्कुंदकुंद और उनसे घटिया दर्जेके दिगम्बर मुनि तो क्या, उत्तम श्रावकोंका भी नहीं हो सकता।
(९) दशवें उल्लासमें छह प्रकारके बाह्य तपके नाम इस प्रकार लिखे हैं:
" रसत्यागस्तनुक्लेश औनादयमभोजनम् ।। लीनता वृत्तिसंक्षेपस्तपःषोढा वहिर्भवम् ॥ २५॥" अर्थात्-१ रसत्याग, २ कायक्लेश, ३ औनोदर्य, ४ अनशन, ५ लीनता और ६ वृत्तिसंक्षेप (वृत्तिपरिसंख्यान), ये छह बाह्य तपके भेद हैं। ___ इन छहों भेदोंमें 'लीनता' नामका तप श्वेताम्बर जैनियोंमें ही मान्य है । श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिने ' योगशास्त्र' में भी इन्हीं छहों भेदोंका वर्णन किया है। परन्तु दिगम्बर जैनियोंमें 'लीनता' के स्थानमें 'विविक्तशय्यासन, वर्णन किया है; जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके निम्नलिखित सूत्रसे प्रगट है:___ “अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥९-१९॥"
इससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ श्वेताम्बर जैनियोंका है। दिगम्बर ऋषि भगवत्कुंदकुंदका बनाया हुआ नहीं है।
For Personal & Private Use Only
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
(१०) आठवें उल्लास में जिनेंद्रदेवका स्वरूप वर्णन करते हुए अठारह दोषोंके नाम इस प्रकार दिये हैं:
१ वीर्यान्तराय, २ भोगान्तराय, ३ उपभोगान्तराय, ४ दानान्तराय, ५ लाभान्तराय, ६ निद्रा, ७ भय, ८ अज्ञान, ९ जुगुप्सा, १० हास्य, ११ रति, १२ अरति, १३ राग, १४ द्वेष, १५ अविरति, १६ काम, १७ शोक और १८ मिध्यात्व । यथा:
――――
<<
“ बलभोगोपभोगानामुभयोर्दानलाभयोः । नान्तरायस्तथा निद्रा, भीरज्ञानं जुगुप्सनम् ॥२४१ ॥ हासो रत्यरती रागद्वेषावविरतिः स्मरः । शोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादशदोषा न यस्य सः ॥ २४२ ॥ " अठारह दोषोंके ये नाम श्वेताम्बर जैनियोंद्वारा ही माने गये हैं । 'प्रसिद्ध श्वेताम्बर साधु आत्मारामजीने भी इन्हीं अठारह दोषोंका उल्लेख अपने 'जैनतत्त्वादर्श' नामक ग्रंथके पृष्ठ ४ पर किया है । परन्तु दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में जो अठारह दोष माने जाते हैं और जिनका बहुतसे दिगम्बर जैनग्रंथोंमें उल्लेख है उनके नाम इस प्रकार हैं:
-
""
१ क्षुधा, २ तृषा, ३ भय, ४ द्वेष, ५ राग, ६ मोह, ७ चिन्ता, ८ जरा, ९ रोग, १० मृत्यु, ११ स्वेद, १२ खेद, १३ मद, १४ रति, १५ विस्मय, १६ जन्म, १७ निद्रा, और १८ विषाद । "
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंकी इस अष्टादशदोषोंकी नामावलीमें बहुत बड़ा अन्तर है । सिर्फ निद्रा, भय, रति, राग और द्वेष, ये पाँच दोष ही दोनोंमें एक रूपसे पाये जाते हैं। बाकी सब दोषोंका कथन परस्पर भिन्न भिन्न है और दोनोंके भिन्न भिन्न सिद्धान्तोंपर अवलम्बित है । इससे निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह ग्रंथ
For Personal & Private Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
श्वेतांबर सम्प्रदायका ही है। दिगम्बरोंका इससे कोई सम्बंध नहीं है। और श्वेताम्बर सम्प्रदायका भी यह कोई सिद्धान्त ग्रंथ नहीं है बल्कि मात्र विवेकविलास है, जो कि एक मंत्रीसुतकी प्रसन्नताके लिए बनाया गया था । विवेकविलासकी संधियाँ और उसके उपर्युल्लिखित दो पद्यों (नं० ३,९) में कुछ ग्रंथनामादिकका परिवर्तन करके ऐसे किसी व्याक्तने, जिसे इतना भी ज्ञान नहीं था कि दिगम्बर और श्वेताम्बरों द्वारा माने हुए अठारह दोषोंमें कितना भेद है, विवेकविलासका नाम 'कुन्दकुन्दश्रावकाचार' रक्खा है। और इस तरह पर इस नकली श्रावकाचारके द्वारा साक्षी आदि अपने किसी विशेष प्रयोजनको सिद्ध करनेकी चेष्टा की है। अस्तु । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जिस व्यक्तिने यह परिवर्तनकार्य किया है वह बड़ा ही धूर्त और दिगम्बर जैनसमाजका शत्रु था। परिवर्तनका यह कार्य कब और कहाँपर हुआ है इसका मुझे अभीतक ठीक निश्चय नहीं हुआ। परन्तु जहाँतक. मैं समझता हूँ इस परिवर्तनको कुछ ज्यादह समय नहीं हुआ है और इसका विधाता जयपुर नगर है।
अन्तमें जैन विद्वानोंसे मेरा सविनय निवेदन है कि यदि उनमेंसे किसीके पास कोई ऐसा प्रमाण मौजूद हो, जिससे यह ग्रंथ भगत्कुंदकुंदका बनाया हुआ सिद्ध हो सके तो वे खुशीसे बहुत शीघ्र उसे प्रकाशित कर देवें । अन्यथा उनका यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि जिस भंडारमें यह ग्रंथ मौजूद हो, उस ग्रंथपर लिख दिया जाय कि 'यह ग्रंथ श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य कुंदकुंदस्वामीका बनाया हुआ नहीं है। बल्कि यह ग्रंथ श्वेताम्बर जैनियोंका 'विवेकविलास' है। किसी धूर्तने ग्रंथकी संधियों और तीसरे व नौवें पद्यमें ग्रंथ नामादिक ज
For Personal & Private Use Only
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५५
का परिवर्तन करके इसका नाम 'कुंदकुंदश्रावकाचार ' रख दिया है'—साथ ही उन्हें अपने भंडारोंके दूसरे ग्रंथोंको भी जाँचना चाहिए
और जांचके लिए दूसरे विद्वानोंको देना चाहिए। केवल वे हस्तलिखित भंडारोंमें मौजूद हैं और उनके साथ दिगम्बराचार्योंका नाम लगा हुआ है, इतनेपरसे ही उन्हें दिगम्बर-ऋषि-प्रणीत न समझ लें। उन्हें खूब समझ लेना चाहिए कि जैन समाजमें एक ऐसा युग भी आचुका है जिसमें कषायवश प्राचीन आचार्योंकी कीर्तिको कलंकित करनेका प्रयत्न किया गया है और अब उस कीर्तिको संरक्षित रखना हमारा खास काम है । इत्यलं विशेषु । देवबंद (सहारनपुर)। किसोर रस्तार । ता० १७-२-१४।।
जैन-जीवनकी कठिनाइयाँ।
मेरा जन्म एक जैनकुलमें हुआ था, इस लिए बचपनमें मैं समझता था कि जिस तरह यूरोपियन, अमेरिकन, जापानी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियाँ हैं उसी तरह जैन भी एक जाति है और उसमें मैंने जन्म लिया है । यद्यपि नव वर्षकी उमर तक मुझे इतना ज्ञान नहीं था कि मैं 'जैन' हूँ। परन्तु ज्यों ही मैं दश वर्षका हुआ त्यों ही एक जैन पंडितने मुझे नमोकार मंत्र, पंचमंगल, दो चार विनती आदि रटा दी और तबसे मैंने यह कहना सीख लिया कि 'मैं एक जैन हूँ।' उस समय मैं यह नहीं जानता था कि जैन बननेमें कोई विशेष आनन्द या लाभ है । अर्थात् तब तक मेरे शरीरपर, मनपर और जीवनपर जैनका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। मेरी यह दशा
For Personal & Private Use Only
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्रह वर्षकी उमर तक रही और जब अठारहवें वर्ष में मैं बुद्धिविषयक ग्रन्थोंका स्वतंत्र रूपसे अध्ययन करने लगा तब मेरे मनमें इस प्रकारके विचार उठने लगे कि 'जैन' किसे कहते हैं, और जैन बननेमें विशेष लाभ कौनसा है। - अब मैंने जैनधर्मके आधुनिक ग्रन्थोंका पढ़ना प्रारंभ किया, उनपर मैं तर्कवितर्क करने लगा और जैन साधुओंके तथा विद्वानोंके सहवासमें -रहकर उनके स्वभावका, वर्तावका और आचार विचारोंका अनुभव प्राप्त करने लगा । फल यह हुआ कि जैनजातिमें रहनेसे मुझे विरक्ति हो गई । जैन बने रहनेमें न तो मुझे कुछ लाभ नजर आया और न कोई आनन्द । धीरे धीरे जैनोंके लोकव्यवहारानुसार मन्दिरोंमें जाना, साधु ब्रह्मचारियोंकी सेवा शुश्रूषा करना, मेला प्रतिष्ठाओंमें जाना और पंचायती कामकाजोंमें शामिल होना आदि सब काम मैंने छोड़ दिये। यद्यपि जैनकुलमें जन्म लेनेके कारण लोग मुझसे जैन कहते थे परन्तु -अब मुझे स्वयं आपको 'जैन' कहलानेमें संकोच होने लगा।
दिन, महीना और वर्ष बीतने लगे। बावीसवें वर्षमें उच्चश्रेणीकी - अँगरेजी शिक्षाने मेरी बुद्धिको तीव्र बनाई और प्रत्येक विषयकी गहरी जाँच करनेकी ओर मेरी रुचि बढ़ी । इसी समय अनायास ही मुझे जैन फिलासोफीके कई ग्रन्थ प्राप्त हो गये और उनके पढ़नेसे मेरे हृदयमें प्रेरणा उत्पन्न हुई कि जैनधर्मका खास तौरसे मनन और परिशीलन करना चाहिए। नीतिके ग्रन्थ और पाश्चात्य फिलासोफीकी पुस्तकें पढ़ते समय मुझे जो जो शंकायें उत्पन्न होती थीं इन ग्रन्थोंका मनन करनेसे उनका समाधान आप ही आप होने लगा। छद्मस्थ दशासे लेकर सर्वज्ञ केवलीकी दशा तककी बीचकी शृङ्खला
For Personal & Private Use Only
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
परसे में विकाशसिद्धान्त के नियमोका ( Lau of Evolution) मुझे ज्ञान होने लगा: अर्थात् इस जन्मके आशय और कर्तव्यको मैं समझने लगा । पुनर्जन्मका सिद्धान्त, कर्मसिद्धान्त, जड़ चेतनकी शक्ति
और उनकी खूबियाँ, अनेक दृष्टिबिन्दुओंसे प्रत्येक विचार करनेवाली नय निक्षेपोंकी योजना, स्थूल औदारिक शरीर के सिवा तैजस कार्माण शरीगका अस्तित्व, मनुष्यशरीर और विश्वरूपकी समानता, स्वर्गादि माम अदृष्ट भवनोंका अस्तित्व और सौन्दर्य, लेश्याओं ( सूक्ष्म दहके रंगों ) का स्वरूप और उनसे होनेवाले परिणाम इत्यादि बातोंने मेरे मनपर वडा भारी प्रभाव डालना शुरू किया। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं अँधेरमेंसे एकाएक प्रकाशमें आ रहा हूँ। मुझे विश्वास होने लगा कि इस नवीन प्राप्त किये हुए ज्ञानसे जीवनकी प्रत्येक घटनाका कारण ढूंढा जा सकता है । मुझे अपने भीतर छुपे हुए कोई का अनुभव होने लगा।
जिस ज्ञानमें मेरे नेत्र खुल गये, और जिस ज्ञानसे समझमें नहीं आनेवाली बानाका भेद समझ में आने लगा उस ज्ञानपर मोहित हो जाना मेरे दिरा बिलकुल स्वाभाविक । अब मुझे इस बातके कहने में कुछ भी लजा या नकोच नहीं रहा कि एक दिन मैं जिस 'जैन' शब्दका कहना अपने लिए अन्छा नहीं समझता या कही 'जैन ' शब्द अपने नामके साथ जुड़ा हुआ देख मुनकर मुझे प्रसन्नता होने लगी।
परन्तु मेरा यह आनन्द और उत्माह चिरस्थायी नहीं हुआ । ज्ञानकी नवीनतासे उत्पन्न हुआ आनन्द चिरस्थायी हो भी कहाँ सकता है। क्या थोडेसे मिलान्तोंका रहस्य समझ लेनेसे चिरस्थायी आनन्द प्राप्त हो सकता है ? यदि ऐसा होता तो चाहे जो मनुष्य वर्ष दो वर्ष ज्ञान प्राप्त करके मुखी हो जाता।
For Personal & Private Use Only
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिन पर दिन जाने लगे और ज्यों ज्यों ज्ञानकी नवीनता घटने लगी त्यों त्यों मेरा आनन्द भी कम होने लगा। अब जीवन मुझे भाररूप मालूम होने लगा और मैं फिरसे जीवन और आनन्दरहित बनकर दिन बिताने लगा। - मेरी यह शुष्क अवस्था लगभग दो वर्ष तक रही। एक दिन मैं अपना दाहिना हाथ कपालपर रक्खे हुए बैठा था और अपनी इस अवस्थाका विचार कर रहा था। मैं लगभग स्थिर कर चुका था कि जैनतत्त्वज्ञानमें भी कोई वास्तविक आनन्द देनेकी शक्ति नहीं है । इतने मेरी दृष्टि उस बटनपर पड़ी जो कि मेरी आँखके सामने ही था और कमीजकी दाहिनी बाँहमें लगा हुआ था। इस बटनको मैंने कोई दो वर्ष पहले खरीदा था । यह सुवर्णका नहीं था-सोनेके बटन खरीदनेकी मेरी शक्ति भी नहीं थी; परन्तु देखनेमें सुवर्ण ही जैसा मालूम होता था। किसी हलकी' धातुपर सोनेका मुलम्मा चढ़ाकर यह बनाया गया था। मैंने देखा कि अब वह पहले जैसा नहीं रहा है-शोभारहित प्रकाशरहित हो गया है। ____अब मैंने समझा कि केवल ऊपरका भाग प्रकाशित करनेसे काम नहीं चल सकता; केवल मस्तकको ज्ञानसे भर देनेसे चिरस्थायी आनन्द या प्रकाशकी आशा नहीं की जा सकती। ' मैं ' सम्पूर्ण प्रकाशित बनूँ , मेरा हृदय और मेरा आचरण सुवर्णमय बने, तभी जीवन 'जीवनमय' और 'प्रकाशमय हो सकता है । अब मुझे विश्वास हो गया कि सुवर्ण एक बहुमूल्य वस्तु है और वह गरीबोंके लिए नहीं है। आनन्द और जीवन जितने आकर्षक हैं उतने ही वे अधिक मूल्यमें मल सकते हैं । जो दुःखको दूर करना चाहता है उसे दुःख भोगनेके । लिए-परिश्रम करनेके लिए भी तैयार होना चाहिए।
For Personal & Private Use Only
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५९
यह सोचकर मैंने 'जैन जीवन' बनानेका निश्चय किया । अर्थात् अब मैं जैनतत्त्वज्ञानको चारित्ररूपसे व्यवहार में लानेके लिए तत्पर हो गया । जिन बारह व्रतों का रहस्य समझ कर मैं जहाँ तहाँ उनकी प्रशंसा किया करता था उन्हींका पालन करनेका मैंने पक्का निश्चय कर लिया । (४)
वास्तव में सारी कठिनाइयाँ मेरे सामने इसी समय उपस्थित हुई । बीडी भंग आदि पदार्थों के सेवनका मुझे बहुत ही शौक था। परन्तु अब इनके छोड़े बिना व्रतोंका पालन करना कठिन हो गया | रात्रि - भोजन, दुप्पाच्य भोजन और तीक्ष्ण चरपरे पदार्थों का त्याग व्रतीको करना ही चाहिए। नाटक, तमाशे, हँसी दिल्लगी, गपशप, मनोहर दृश्य, फेशन, वासनाओंको जागृत करनेवाले उपन्यास और काव्य, .. आकुलता बढ़ानेवाले रोजगार ; इन सब बातोंका त्याग किये बिना व्रतों का पालन नहीं हो सकता | गरज यह कि मुझे अपना सारा जीवन बदल डालना चाहिए - नवीन जीवन प्रारंभ करने के समान • इकना एक से गिनना शुरू करना चाहिए, ऐसा मुझे मालूम हुआ । वास्तव में यह काम बहुत ही कठिन था, परन्तु यह सोचकर कि गिनती के पहाडे बोटे बिना गणितज्ञ बनना असंभव है - मैंने अपने जीवनका साहसपूर्वक फिरसे प्रारंभ किया ।
जिन्हें उक्त वस्तुओंके छोड़नेकी कठिनाइयोंका अनुभव होगा वे ही मेरी इस समयकी असुविधाओंका बीच बीचमें आनेवाली कमजोरि - योंका और कठिनाइयोंका खयाल कर सकेंगे ।
"
केवल मनोनिग्रह सम्बन्धी कठिनाइयोंसे ही मेरे दुःखकी पूर्ति नहीं हुई। लोगों के साथ मिलना जुलना बन्द कर देनेके कारण मेरे सम्बवी तथा इष्टमित्र मुझे मनहूस, वकत्रती, स्वार्थी, अर्द्धविक्षिप्त आदि
For Personal & Private Use Only
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
पदवियोंसे विभूषित करने लगे । फेशनकी चुंगलमें से निकलने के साथ ही मेरे कुटुम्बी जन मुझसे असन्तुष्ट जान पड़े । मायाचारी कथन अथवा मुँहदेखी बातें कहना छोड़ देनेका और अमिश्र सत्य कहनेका परिणाम यह हुआ कि धनिक, अगुए और त्यागी नामधारी लोग मुझसे रुष्ट हो गये - वे मेरे विरुद्ध आन्दोलन करने लगे । (५)
जैनतत्त्वज्ञानकी प्राप्ति तो मुझे शुरू से ही आनन्द देने लगी थी परन्तु यह 'जैनजीवन' तो मेरे लिए शुरूसे ही कष्टकर और असह्य हो गया !
परन्तु, इतना ही कष्ट मेरे लिए बस न हुआ। पहले प्राप्त किये हुए ज्ञानने इस कष्ट में और भी वृद्धि की । पूर्वजन्मों का स्मरण होनेसे, मन-वचन-कायरूप शस्त्र हिंसक कार्योंमें निरन्तर प्रवृत्त करनेसे जो आत्माका प्रत्येक प्रदेश अन्धकार से छा रहा था उसका खयाल आनेसे, और जीवन अनिश्चित है इसका विश्वास हो जानेसे, मैं प्रत्येक मिनिट, प्रत्येक पाई, और प्रत्येक मौका खो देनेके पहले हज़ारों तरहके विचार करने लगा । भला, ऋणी तथा भिखारीका उड़ाऊ या अपव्ययी होनेसे कैसे काम चल सकता है ? मनुष्यका जीवन अनिश्चित है । उसे पूर्व कर्मोंरूपी बड़े भारी कर्जको अदा करना है। तब वह अपने हाथकी सम
रूप लक्ष्मी, द्रव्यरूप लक्ष्मी, शरीरबलरूप लक्ष्मी और विचारबलरूप लक्ष्मी; इन सबका बिना विचारे उड़ाऊकी तरह कैसे खर्च कर सकता है ? इससे मैं उन विषयोंका भी गहरा पैठकर विचार करने लगा कि जिन्हें दुनिया बिलकुल मामूली समझ रही थी । सचमुच ही सच्चा ज्ञान बड़ी भारी जोखिमदारी उत्पन्न कर देता है । प्रत्यक कार्य करते समय मुझे पूर्व कर्मोंका, वर्तमान देशकालका और आगामी परिणामका
For Personal & Private Use Only
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
विचार करनेका अभ्यास पड़ गया। यह शरीर ही 'मैं' नहीं हूँ, यह शरीर केवल मेरे अकलेका ही शरीर नहीं है, वर्तमान ही केवल एक समय नहीं है, भिन्न दिखनेवाले जीवोंमें और मुझमें निश्चयसे कोई भेद नहीं है; इन सब सिद्धान्तोंके स्मरणने मुझे बहुत ही मितव्ययी, साधा और सरल बननेके लिए लाचार कर दिया और जैसे बने तैसे दूसरोंकी उत्क्रान्ति उन्नति या सुखके लिए अपनी सारी शक्तियोंका व्यय करनेकी और तत्पर कर दिया । इससे मेरे कुटुम्बके लोग जो कि ऊपर की श्रेणीपर नहीं चढ़े थे मुझसे बहुत ही चिढ़ गये और असन्तोष प्रगट करने लगे। ___ इस तरह एक ओरसे तो कुटुम्बी जन, जान पहचानवाले, जाति विरादरीके अगुए और धर्मगुरु मेरे विरुद्ध खड़े हो गये और दूसरी
ओरमे जैनतत्त्वज्ञानने मेरी आँखोंके सामने जो विशाल ज्ञान और जोखिमदारियाँ उपस्थित की थीं उनके मारे मैं हैरान परेशान होने लगा। वास्तवमें मुझे इसी समय यह मालूम हुआ कि जैन बननेमें कितना कष्ट उठाना पड़ता है। ___ ऊपर बतलाई हुई कठिनाइयों से उन कठिनाइयोंको तो शायद सब ही मान लेंगे जो कुटुम्ब तथा समाजादिकी ओरसे * सामने आती
क. जो वास्तविक जैनी है उसकी सृष्टि दूसरे लोगोंकी अपेक्षा बहुत आगे पहुँचता है। उसकी नैतिक पद्धति वर्तमानका नहीं किन्तु भविष्यतका अवलम्बन करती है । उसके लिए वर्तमानका मार्ग यथेष्ट नहीं, कारण वह आज कोई ऐसी वस्तुके प्राप्त करने का प्रयत्न करता है कि जिसे दुनियाके दूसरे लोग शायद कल प्राप्त करें । एक जैन आज ऐसे आचारके चलानेका प्रयत्न करता है जो दुनियाकी समझमें कल उतरेगा और जिसका अंगीकार दुनियाके लिए परसों शक्य होगा। जैनके विचार, दृष्टिबिन्दु. और मार्ग ज्यों ज्यों आधिकाधिक आगे बढ़ते जाते हैं यो त्यों वे और लोगोंके विचारों, सृष्टिबिन्दुओं और मागोंसे भिन्न होते जाते हैं।
For Personal & Private Use Only
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं परन्तु इस बातको शायद ही कोई स्वीकार करे कि विशाल ज्ञान
और जोखिमदारियोंके खयालसे भी दुःख होता है। अच्छा तो ठहरिए, मैं एक दो दृष्टान्त देकर इसके समझानेका प्रयत्न करता हूँ:
१-परमार्थ या परोपकार करना अच्छा है, इस आशयसे व्यापारादिमें रुपया कमाकर उन्हें लोगोंके उपकारमें खर्च करना अच्छा है या इसी आशयसे ज्ञानमें गहरा प्रवेश करके–' गुप्तदृष्टा ' बनकरके दुनियाको उपदेश देनेमें लग जाना और उसके घनघोर अन्धकारपूर्ण मार्गमें थोड़ा बहुत प्रकाश डालना अच्छा है ? अर्थात् इन दो बातोंमेंसे किसके करनेसे जीवनका विशेष उपयोग हो सकता है ?
२–मेरे बालक और मेरे बालबुद्धि सहधर्मी बुरे रास्ते जा रहे हैं। यदि उन्हें सीधी तरहसे सीधा रास्ता बतलाया जाता है तो वे मानते नहीं है परन्तु यदि मनमें दयाभाव रखके बाहरसे कुछ डाँटदंपट की . जाती है तो वे डरसे सीधे रास्ते पर चलने लगते हैं और कुछ समय तक चलते रहनेसे उनको अभ्यास हो जाता है-वह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है। पर उक्त कृत्रिम डाँटदपट दिखलानेसे कभी कभी मेरी आन्तरिक शान्तिमें बाधा पड़ने लगती है ? ( यहाँ यह मान लेना चाहिए कि कुछ न करके केवल आत्मसुधारणामें ही संतोष मान कर बैठ रहना जैनजीवनसे विरुद्ध है।) __कौनसा रास्ता अधिक सुगम है इसका नहीं, किन्तु कौनसा रास्ता अधिक हितावह है इसके निर्णय करनेका काम ज्यों ज्यों ज्ञान
....... ..........................................................
तब दुनियाके विचारों, दृष्टिविंदुओं, मार्गों, रीति रवाजोंसे जुदा होना, दुनियाके मनुष्योंके कानून जालसे मुक्त होना, नियमोंके पुतलेके आगे सिर झुकानेसे इंकार करना यह क्या कोई दुनियाकी दृष्टिमें छोटा मोटा अपराध है ? ऐसे लोगोंको कड़ीसे कड़ी सजा कैसे देना चाहिए इस कामको दुनिया अच्छी तरह जानती है।
For Personal & Private Use Only
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
बढ़ता जाता है त्यों त्यों अधिक कष्टदायक होता जाता है । राजा होनेसे कितनी कठिनाइयाँ झेलना पड़ती हैं इसका अनुभव एक भिखारीको नहीं हो सकता । अर्द्धदग्ध लेभागू लोगोंको नई नई योजनायें गढ़ना बहुत सहज मालूम होता है; परन्तु विद्वानोंको नहीं । " जहाँ देवता पैर रखनेमें भी डरते हैं वहाँ मूर्खलोग खूब धूमधामसे चलते हैं।" ____ पहले 'जैन ' कहलवानेसे अप्रसन्न, पीछे थोडेसे जैनतत्वज्ञानके प्राप्त होनेसे प्रसन्न, फिर 'जैनजीवन ' व्यतीत करनेका इच्छुक और पीछे 'जैनजीवन ' से उत्पन्न होनेवाली बाहरी और भीतरी कठिनाइयोंसे दुःखी; इस तरह मैं क्रमक्रमसे अनेक अवस्थाओंमें प्रगति करने लगा।
इस पिछली अवस्थाका मैंने अभी अतिक्रमण नहीं किया है इसलिए इसके पीछेकी स्थितियोंका स्वरूप चित्रित करके बतलाना मेरे लिए अशक्य है। अभी मैं ' जैनजीवन ' बिता रहा हूँ और इस जीवनको अधिकसे अधिक निर्दोष और अधिकसे अधिक सम्पूर्ण बनानेके लिए अधिकाधिक प्रयत्न कर रहा हूँ। यहाँ मैं यह अवश्य कहूँगा कि जैनजीवन अंगीकार करनेके बाद मुझे जिन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा है वे अनुभवसे ऐसी मालूम हुई हैं कि उन्नतिक्रमका . आशय समझ लेने पर वे असह्य नहीं जान पड़ती हैं और उनसे विरक्ति भी नहीं होती है। __ जो मनुष्य सुगम या सहज जीवन व्यतीत करता है, जिसकी दृष्टिके आगे कभी भयंकर कठिनाइयाँ और बड़ी बड़ी विघ्नबाधायें खडी नहीं हुई हैं, वह मनुष्य वास्तवमें देखा जाय तो ईर्षा करनेके योग्य नहीं किन्तु दया करनेके योग्य है। क्योंकि इनके विना उसकी उत्क्रान्ति नहीं हो सकती। बालकोंको सीखा हुआ पाठ बोल जानेम
For Personal & Private Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
कोई कठिनाई नहीं पड़ती; परन्तु नये और कठिन पाठ सीखनेका कष्ट भोगे विना वे विद्वान् नहीं हो सकते। हम देखते हैं कि जो विद्यार्थी कठोर गुरुके पास पढ़ता है वह बहुत प्रवीण होता है। गुप्तज्ञानके प्रेमियोंको नई नई भूमिकाओंपरसे उत्तर्णि होना चाहिए, नये नये पदचिह्न बनाना चाहिए, नवीन राज्योंको जीतनेवालों और पता लगानेवालोंको जितना साहस और सहनशीलता धारण करनी पड़ती है उससे भी अधिक साहस और सहनशीलता धारण करनी चाहिए। क्योंकि स्थूल राज्योंका पता लगानेकी अपेक्षा सूक्ष्म भवनोंके पता लगाने और प्राप्त करनेका काम बहुत ही कठिन और बहुमूल्य है। क्या आप समझते हैं कि महावीर भगवान् जैसे महात्माओंको भी यह काम सहज मालूम हुआ था? उनका तप, उनका विहार, उनका कायोत्सर्ग और उनका परीषहसहन ये सब बातें क्या सूचित करती हैं । दुःख दुःखसे ही दूर होता है। सोना महँगा ही मिलता है । कायर, डरपोंक, सुखिया और सिर्फ ज्ञानकी ही बातें करनेवालोंको स्थूल अथवः सूक्ष्म राज्य प्राप्त करनेका अधिकार नहीं। ___ जैनधर्म यह कोई जातिविशेष नहीं, किन्तु एक जीवन है। यह कोई कोरी फिलासोफी भी नहीं है किन्तु फिलासोफीकी नीवपर खड़ा किया हुआ आध्यात्मिक जीवन है। इस जीवनको जिस तरह वैश्य प्राप्त कर सकते हैं उसी तरह ब्राह्मण, क्षत्री, भंगी, चमार, यूरोपियन, जापानी आदि भी प्राप्त कर सकते हैं। वैश्य-ब्राह्मण-क्षत्री-भंगी-चमारयूरोपियन-जापानी आदि भेदोंका जैनजीवनमें-जैनधर्ममें आस्तित्व ही नहीं है। यह विश्वकी सर्वसाधारण सम्पत्ति है, विश्वके रहस्यकी। कुंजी है और समस्त जीवोंको परस्पर जोड़नेवाली सुवर्णमय संकल है।
For Personal & Private Use Only
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
सचमुच ही जैनधर्म यह एक बहुत ही अच्छा आश्रयस्थल है-बहुत ही कीर्तिमय आश्रयस्थल है; परन्तु वह सुखचैन और मौज शौकको उत्तेजित करनेवाला स्थल नहीं है। जैनधर्ममें अगणित जीवोंको शान्ति मिली है; सचमुच ही उसमें महती शान्ति विद्यमान है परन्तु डरपोंक और युद्धोंसे डरनेवाले लोग जिस शान्तिकी खोजमें रहते है वह शान्ति जैनधर्म नहीं दे सकता। जैनधर्ममें अगणित जीवोंको प्रकाश मिला है। सचमुच ही उसमें सम्पूर्ण प्रकाश समाया हुआ है; परन्तु वह ऐसा प्रकाश नहीं है जो अपने ग्राहकोंके लिए मार्ग साफ़ बना दे। वह ऐसा प्रकाश है कि जो सामने फैलेहुए घनघोर अन्धकारके आरपार जानेकी शक्ति देता है और स्वीकृत मार्गकी कठिनाइयोंको स्पष्ट करके बतला देता है। और जैनधर्म ऐसा है यह बड़े भारी सौभाग्यका • विषय है। *
ऐतिहासिक लेखोंका परिचय । इस समय भारतवर्षके प्राचीन इतिहासके अन्वेषणके लिए शिला- लेख इत्यादि ही मुख्य आधार हैं इस बात पर सर्व विद्वान् सहमत
हैं । ये लेख केवल पर्वत-शिलाओं पर ही नहीं हैं, किन्तु अन्य कई पदार्थोपर भी मिले हैं । ये लेख (१) किन किन पदार्थोंपर हैं ? (२) किन भाषाओं में हैं ? (३) इनमें क्या लिखा है और (४) इनका इतिहासमें इतना मान क्यों है ? इन प्रश्नोंके उत्तरको ऐतिहासिक अन्वेषणकी वर्णमाला कहें तो कुछ अत्युक्ति न होगी। संक्षेपमें इन प्रश्नोंके उत्तर ये हैं:
* जैनहितेच्छुमें प्रकाशित गुजराती लेखका अनुवाद।
For Personal & Private Use Only
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१) पदार्थ । पदार्थ जिन पर ये लेख मिले हैं अनेक प्रकारके हैं; लेकिन वे तीन विभागोंमें विभक्त किये जा सकते हैं,--पाषाण, धातु और मिट्टी । सबसे अधिक और महत्त्वपूर्ण लेख पाषाणशिलाओं पर मिले हैं।
पाषाण-पाषाणके लेख अधिकांश पर्वतोंकी शिलाओं अर्थात् चट्टानों पर हैं। इनमें महाराजा अशोकके १४ लेख अधिक प्रसिद्ध हैं। ये लेख गिरनार ( जूनागढ़), कालसी (देहरादून), और धौली (उड़ीसा) इत्यादि स्थानोंमें हैं। इन १४ लेखोंके अतिरिक्त महाराजा अशोकके और भी बहुतसे लेख हैं। अन्य राजाओंके लेख भी बहुत हैं जिनमेंसे मुख्य मुख्य काँगड़ा और बीजापुरके जिलोंमें और मैसूर राज्यमें हैं। इनसे अनेक राजाओंकी राज्यसंबंधी बहुतसी बातोंका पता चलता है । जैनशिलालेख भी बहुतसे स्थानोंपर हैं । मैसूर राज्यान्तर्गत श्रवणबेलगुलमें चंद्रगिरि और विध्यगिरि पर्वतोंपर जैनियोंके अनेक महत्वसूचक शिलालेख संस्कृत और कनडी भाषाओंमें हैं जिनसे जैनइतिहाससंबंधी बहुतसी बातोंका पता लगता है।* शत्रुजय (पालीताना) तीर्थपर श्रीआदीश्वरभगवानके मंदिर पर और आबू और गिरनारके अनेक मंदिरोंमें भी कई जैन शिलालेख हैं। थोड़े ही वर्ष हुए उडीसा (कलिंग ) में भी कई लेख मिले हैं जिनसे प्रकट होता है कि कलिंगाधिपति राजा खारवेल जैनधर्मानुयायी ही थे। यदि ये शिलालेख न
* इन लेखोंका विस्तारपूर्वक विवरण ‘जैनसिद्धान्तभास्करकी १ और २-३ किरणों, ‘ऐपीग्राफिका कर्नाटिका ' और 'ईन्स्कृपशन्स् ऐट श्रवणबेलगोला में दिया है। इन लेखोंके संबंधमें बहुतसी ऐतिहासिक और मनोज्ञ बातें हैं परंतु । वे इस लेखकी सीमासे बाहर हैं अतएव उनका उल्लेख यहाँ नहीं किया जासकता।।
For Personal & Private Use Only
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिलते तो कौन जानता कि जैनधर्मका प्रचार किसी समय उड़ीसामें भी बहुलतासे था ।*
चट्टानोंके अतिरिक्त कुछ लेख शिल्पकारों द्वारा बनाये हुए स्तंभोंपर मिलते हैं। ये स्तंभ आकारमें गोल हैं और बहुत ऊँचे हैं। इनमें महाराजा अशोकके स्तंभ अधिक प्रसिद्ध हैं । ये स्तंभ इलाहाबाद, दिल्ली, जिला चंपारन (बंगाल ) इत्यादि स्थानोंमें हैं। इनके लेखोंसे महाराजा अशोककी शासन और धर्मसंबंधी बहुतसी बातोंका परिचय मिलता है। अन्य स्तंभ मैसूर, बीजापूर, मालवा आदि स्था
बहुतसे लेख इमारतोंपर भी मिले हैं। डाक्टर फुहररको मथुरामें कंकाली टीलेके खोदे जानेपर बहुतसी इमारतें और लेख मिले। इनसे कई जैनमंदिरों और स्तंभोंका परिचय मिला है। जिनपर कई अत्यंत प्राचीन जैनधर्मसंबंधी लेख हैं । बौद्धोंके भी बहुतसे स्तूप हैं। ये स्तूप ईंट और पत्थर दोनोंहीके बने हुए हैं। इनमें भूपाल राज्यमें सांचीके स्तूप सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँका सबसे बड़ा स्तूप ३५ गज लम्बे व्यासके वृत्तपर बना है, और १५ गज ऊँचा है। ये स्तूप बहुधा उलटे हुए कटोरेके आकारके बने हुए हैं। इलाहाबादके दक्षिणमें बरहुतमें भी एक विशाल स्तूप है। इन स्तूपोंके बाहरी भाग और फाटकोपर अनेक लेख, चित्र और मूर्तियाँ हैं जिनसे बहुतसे प्राचीन राजाओंका पता लगा है। इन स्तूपोंके भीतर भी कुछ कम ऐतिहा
* जैन शिलालेखोंका विस्तृत वृत्तांत 'जैनहितैषी ' के श्रावण वीर स० २४३८ के अंकमें या · जैनशासन ' के वी० सं० २४३८ के खास अंक (पृष्ठ १२९-१३२ ) में देखो।
ये लेख अब लखनऊके अजायबघरमें रक्खे हुए हैं।
For Personal & Private Use Only
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिक सामग्री नहीं है। इनके भीतर पत्थरके संदूक मिले हैं जिसमें बौद्धोंके मृत शरीरोंकी भस्म रक्खी जाती थी। इन संदूकोंके ऊपर बहुतसे लेख खुदे हुए मिले हैं जिनसे बौद्धधर्मके प्रचारके विषयमें बहुतसी बातोंका परिचय मिला है। कहीं कहीं यह लेख संदूकोंके ढकनोंके भीतरकी ओर केवल स्याहीसे ही लिखे मिले हैं। अभी हालमें तक्षशिला ( पंजाब ) के खोदे जानेपर जो अन्वेषण हुए हैं वे डाक्टर मारशलने ४ सितम्बर १९१३ ई० को शिमलामें पंजाब ऐतिहासिक सोसाइटीको पढ़कर सुनाए थे। तक्षशिलाके टीलोंमें बहुतसे स्तूप
और इमारतें मिली हैं जिनसे राजा कनिष्कके समयके सम्बधमें कुछ नवीन बातें हाथ लगी हैं। इन इमारतोंमेंसे कई सिक्के भी मिले हैं जिनसे भारतवर्षके इतिहासकी बहुतसी बातोंका परिचय मिला है। . मुसलमानोंकी तो ऐसी बहुतसी इमारतें आगरा, देहली, सीकरी, ! बीजापुर इत्यादि स्थानोंमें विद्यमान है जिनपर ऐतिहासिक लेख हैं।
बिहार प्रांतके अंतर्गत गया जिलेमें बहुतसी गुफायें हैं जिन पर महाराजा अशोकके लेख मिले हैं। ऐसी गुफायें और भी कई स्थानोंमें हैं । कहीं इन गुफाओंमें चैत्यालय भी बने हैं। जूनागढ़ और उडीसाकी गुफाओंमें कई जैनलेख और प्रतिमायें मिली हैं जो जैनधर्मके लिए बड़े महत्त्वकी हैं। __ वैदिक, जैन और बौद्धधर्मसंबंधी प्रतिमाओंपर सैकड़ों ही लेख मिलते हैं। श्रवणबेलगुलमें विंध्यगिरि पर्वतपर श्रीबाहुबलि स्वामीकी एक विशाल मूर्ति हैं जिस पर एक बहुत प्राचीन शिलालेख है ।
धातु-अब तक सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, लोहा इत्यादि अनेक धातुओंपर लेख मिल चुके हैं । इनमें से अधिकांश लेख ताम्रपत्रोंपर हैं । इन पत्रोंकी लम्बाई चौडाई २ इंचसे लेकर २॥ फुट तक पल
For Personal & Private Use Only
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६९
गई है। किसी किसी पत्र पर केवल एक ओर लेख है और किसी किसी पर दोनों ओर । कोई कोई लेख ऐसे भी हैं जो कई पत्रोंमें समाप्त हुए हैं। जब राजा अपनी प्रजामेंसे किसी पुरुषको ग्राम इत्यादि दान देते थे तो यह बात इन ताम्रपत्रोंपर लिख कर उस व्यक्तिविशेषको दे दी जाती थी, अतएव यह ताम्रपत्र अधिकतर उन लोगोंके यहाँ मिले हैं जिनके पूर्वजोंको दान दिये गये थे । कहीं कहीं ये खेतों और दीवारोंमें भी गढ़े हुए मिले हैं जो कि बहुत काल व्यतीत होनेपर अपने अधिकारियोंके हाथसे निकल गये अथवा खो गये हैं। इन पत्रोंपर दानी राजाओंकी छापें अंकित हैं। ये छापें अलग भी मिली हैं। ___ सोने, चाँदीके पत्रों और मुद्राओंपर लेख बहुधा स्तूपोंमें ही मिले हैं। पीतलकी प्रतिमाओंपर बहुत लेख मिले हैं। सोने, चाँदी, इत्यादिके सिक्के भी बहुत मिले हैं जिनके लेख इतिहासके लिए अत्यंत उपयोगी हैं।
जिला देहलीमें महरौनी ग्राममें एक लोहेका स्तंभ है । इसकी ऊँचाई ९ गज है । इस पर एक छोटीसी कविता अंकित है जो महाराजा चंद्रगुप्त द्वितीयको समर्पित है।
मिट्टी-बहुधा मिट्टीके घट और अन्य प्रकारके वरतन जिन पर स्याहीसे लिखे हुए या खुदे हुए लेख हैं, मिले हैं । पश्चिमोत्तर सरहद्दी प्रांतमें मिले हुए कुछ बरतनोंके लेख यह सूचित करते हैं कि वे बौद्धं साधुओंको दानमें अर्पण किये गये थे।
मिट्टीके बने हुए और अग्निमें पकाये हुए बहुतसे चौरस टुकड़े मिले . हैं जिन पर बौद्धोंके लेख और चित्र अंकित हैं।
For Personal & Private Use Only
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
ईंटों पर भी लेख मिले हैं। ये लेख ईंटोंके साथ साँचेमें ढाले हुए हैं । ये बहुधा पंजाब और संयुक्त प्रांतमें मिले हैं। जिला गाजीपुरमें बहुतसी ईंटें मिली हैं जिन पर राजा कुमारगुप्तके लेख हैं। कुछ ईंटों . पर बौद्धधर्मसंबंधी सूत्र भी लिखे मिले हैं।
२ भाषा। __ ये लेख अनेक भाषाओं और लिपियोंमें हैं । अधिकतर लेख संस्कृत प्राकृत और पाली भाषाओंमें हैं; अन्य भाषाओंमें कनडी, तैलंग, मलयालम, मराठी इत्यादि मुख्य हैं। मुसलमान बादशाहोंके लेख झारसी और अरबी भाषाओंमें है । अधिकांश लेख गद्यमें हैं; कुछ पद्यमें तथा मिश्रित गद्य और पद्यमें भी हैं। कई प्रकारकी प्राकृत भाषाओं और पाली भाषाके पढ़ने और समझनेमें पहले बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा है। कुछ लेखोंके पढ़नेमें तो अनेक विद्वानोंको बरसों तक सरतोड़ परिश्रम करना पड़ा है। किन्तु बड़े परिश्रमके पश्चात् अब इन भाषाओंके कोश और व्याकरण बन गये हैं। अतएव वर्तमान और आगामी पुरातत्त्वान्वीषयोंके लिए बड़ी सुगमता हो गई है। इन लेखों पर संवत् भी भिन्न भिन्न मिलते हैं; कलियुग, विक्रम, मालव, शक, गुप्त, चेदी, लक्ष्मणसेन, नेवाड़ इत्यादि कई संवत् हैं। बहुतसे लेखोंमें मास और तिथियाँ तक लिखी हैं। कई लेखोंमें संवत्के अंक तो दिये हैं किन्तु यह नहीं लिखा कि वे कौनसे संवत् हैं । ऐसे लेखोंके कालनिर्णय करनेमें बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है। लेखोंके संवतोंके विषयमें भी विद्वानोंने कई पुस्तकें लिख डाली हैं जिनसे कालनिर्णयमें बहुत सहायता मिलती है। . ( अपूर्ण)
मोतीलाल जैन, आगरा ।
For Personal & Private Use Only
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७१
चार लाखके दानसे कौनसी संस्था खुलनी चाहिए।
इन्दौरके दानवीर सेठ हुकुमचन्दजीने अभी हाल जो चार लाख. रुपया दान करनेकी घोषणा की है, उससे कौनसी और कैसी संस्था खोली जानी चाहिए इस विषयमें सर्व साधारणसे सम्मतियाँ माँगी गई है और उन सब सम्मतियोंपर विचार करनेका विश्वास दिलाया गया है । मेरी समझमें सेठजीकी यह उदारता उस उदारतासे भी बहुत बड़ी है जो उन्होंने चार लाख रुपयाका महान् दान करनेमें प्रकट की है। जैन समाजके लिए इससे अधिक सौभाग्यका विषय और क्या हो सकता है कि उसके अगुए और धनीमानी लोग उसकी सम्मतिसे उसका हित करनेके लिए तत्पर हो रहे हैं। 1- मैं समाजका एक अल्पज्ञ सेवक हूँ, अतएव मैं भी इस विषयमें अपने विचार प्रगट कर देना उचित समझता हूँ। आशा है कि उदारहृदय सेठजी इनपर एक दृष्टि डालजानेकी कृपा करेंगे। ___जहाँतक मैं जानता हूँ सेठजी अपने इस द्रव्यसे इन्दौर में ही संस्था खोलना चाहते हैं । इन्दौरसे बाहर किसी दूसरे स्थानमें संस्था खोलनेकी उनकी इच्छा नहीं है । अतएव इन्दौरकी परिस्थितियों सुविधाओं
और आवश्यकताओंका खयाल रखके मैं इस विषयपर विचार करूँगा। ___ यहाँ मैं यह कह देनेमें कुछ हानि नहीं समझता कि बहुतसे सज्जन जो इस रकमसे एक 'जैनकालेज' खोलनेकी सम्मति दे रहे हैं वह ठीक नहीं है । कारण एक तो, एक कालेजके लिए यह रकम बहुत ही कम है दूसरे इन्दौरमें दो कालेज हैं उनमें ही विद्यार्थियोंकी संख्या यथेष्टसे बहुत कम है। तब इस तीसरे कालेजको यथेष्ट विद्यार्थी मिलना कठिन है। यदि बाहरके जैन विद्यार्थियोंके आकर रहनेकी आशा की जाय,
For Personal & Private Use Only
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
तो वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि उन प्रान्तोंसे यह स्थान बहुत ही दूर है जहाँ कि कालेजोंमें पढ़नेवाले जैन विद्यार्थियोंकी बहुलता है। जैन कालेजके योग्य स्थान देहली है, वहाँ चाहे जितने विद्यार्थी मिल सकते हैं परन्तु सेठजी अपनी संस्था इन्दौरमें ही स्थापित करना चाहते हैं। तीसरे जैन समाजमें अभीतक ऐसे स्वार्थत्यागी और सुयोग्य वर्कर या काम करनेवाले नहीं दिखाई देते जो एक अच्छे कालेजको चला सकें। यदि इन्दौरके सेठ तिलोकचन्द हाईस्कूलको ही हम लोग अच्छी तरह चला सके और उसे एक आदर्श शिक्षा संस्था बना सके तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि उक्त हाईस्कूल ही थोडे समयमें जैन कालेजका रूप धारण कर लेगा, अर्थात् इस हाईस्कूलको ही जैन कालेजका प्रारंभ समझना चाहिए। उदारहृदय सेठ कल्याणमलजी इसमें और भी कई लाख रुपया लगा देनेकी पवित्र इच्छा रखते हैं। ऐसी अवस्थामें उक्त चार लाखकी रकमसे हमें कालेजके सिवा और ही किसी आवश्यक संस्थाके खुलनेकी प्रतीक्षा करना चाहिए। जैनसमाजमें अभी बीसों उपयोगी संस्थाओंकी आवश्यकता है जिनमेंसे यहाँ मैं दो चार संस्थाओंका उल्लेख किये देता हूँ:
१ जैनशिक्षाप्रचारकभण्डार-इस समय एक ऐसी संस्थाकी बड़ी भारी ज़रूरत है कि जिससे चाहे जहाँ चाहे जिस प्रकारकी शिक्षा पानेवाले जैन विद्यार्थियोंको मासिक वृत्तियाँ, एक मुश्त पारितोषक या सहायतायें दी जा सकें । ऐसे अनेक स्थान हैं जहाँपर जैनविद्यार्थी रहते हैं और सरकारी या गैरसरकारी शिक्षासंस्थायें भी हैं । परन्तु द्रव्याभावसे स्कूलोंकी फीस न दे सकनेके कारण वे पढ़ नहीं सकते हैं। बहुतसे विद्यार्थी उच्चश्रेणीकी शिक्षा प्राप्त करनेके लिए देशके ही अन्य स्थानोंमें या विदेशोंमें जाना चाहते हैं परन्तु सहायताके बिना
For Personal & Private Use Only
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
नहीं जा सकते । बहुतसे स्थान ऐसे हैं जहाँ पढनेवाले विद्यार्थी तो बहुत हैं परन्तु स्थानीय जैनी अपनी निर्धनताके कारण वहाँ कोई पाठशाला स्थापित नहीं कर सकते हैं, अथवा थोड़ी बहुत बाहरी सहायताकी आशा रखते हैं। बहुतसी पाठशालायें ऐसी हैं जहाँ पठनपाठनका प्रबन्ध तो अच्छा है परन्तु विद्यार्थियों को स्कालशिप देकर रखनेकी गुंजाइश नहीं है । इस भंडारसे इस तरहके अनेक विद्यार्थियोंका और पाठशालाओंको सहायता दी जा सकेगी और सारे देशके जैनी इससे लाभ उठा सकेंगे । चार लाख रुपयोंका मासिक व्याज लगभग १५००) के होगा । यदि पाँच रुपया महीनाके हिसाबसे एक एक विद्यार्थीको सहायता दी जायगी, तो इस भंडारकी ओरसे कोई चार सौ पाँच सौ लडके निरन्तर विद्या प्राप्त करते रहेंगे । अन्य संस्थाओंके. समान प्रबन्धादिकी झंझटें भी इसमें बहुत कम हैं; एक आफिस और दो तीन कर्मचारी रखनेसे ही इसका अच्छा प्रबन्ध हो सकता है । पुण्यके समान यश भी इससे बहुत होगा ।
__ कुछ वृत्तियाँ ऐसी भी इस भंडारकी ओरसे रक्खी जावें जो देश -भरके हाईस्कूलों, कालेजों और संस्कृत पाठशालाओंमें पढ़नेवाले
जैन अजैन विद्यार्थियोंको संस्थाकी ओरसे नियत किये हुए ग्रन्थोंकी परीक्षामें उत्तीर्ण होनेपर दी जावें। ऐसा करनेसे सैकडों जैन और अजैन विद्यार्थी जैनसाहित्यसे परिचित होने लगेंगे। इसका प्रबन्ध शिक्षाखातेके अधिकारियोंसे लिखापढ़ी करनेपर अच्छी तरहसे हो सकता है।
एक फंड इस संस्थामें इस तरहका भी खोला जावे जिससे उच्च श्रेणीकी विद्या प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले किन्तु शिक्षा व्ययका
For Personal & Private Use Only
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
प्रबन्धन कर सकनेवाले विद्यार्थियोंको बिना सूदके उधार रुपया दिया जावे और इस बातकी लिखा पढ़ी कर ली जाय कि जीविकाकी व्यवस्था हो जानेपर वे धीरे धीरे अपना कर्ज अदा कर देंगे। इससे सैकडों विद्यार्थियोंके लिए विद्याप्राप्तिका मार्ग सुगम हो जायगा । बम्बई में इस प्रकारकी एक संस्था बहुत दिनोंसे चल रही है। आजतक उसके द्वारा सैकड़ों विद्यार्थी अपनी ज्ञानपिपासाको शान्त कर सके हैं । २. औद्योगिक विद्यालय-देश दिनपर दिन दरिद्र होता जा रहा है। लोग बिना उद्योगके मारे मारे फिरते हैं। शिक्षितोंको औद्योगिक - शिक्षा नहीं मिलती, इससे वे नोकरीके सिवा और कोई भी उद्योग नहीं कर सकते है और नौकरियाँ देशमें थोड़ी हैं। शिक्षा इस प्रकाकी दी जाती है कि शिक्षितोंसे परिश्रम नहीं हो सकता - शिक्षा - गृहों में वे सुकुमार बना दिये जाते हैं। इससे एक ऐसे विद्यालय की बड़ी भारी जरूरत है जिसमें पढ़ना लिखना सिखलाने के साथ साथ तरह तरहके उद्योग सिखलाये जावें और मानसिक परिश्रम के साथ साथ शारीरिक श्रम भी विद्यार्थियोंसे लिया जावे। जैनसमाजमें भी उद्योगहीनता बेतरह बढ़ रही है। देहातोंमें जाइए, वहाँ आपको हजारों जैनी ऐसे मिलेंगे जो उद्योगके बिना उदरपोषण करनेके लिए दूसरोंका मुँह ताकते हैं । इस विद्यालय से हजारों निरुद्योगी सीख जावेंगे और थोड़े ही समय में स्वाधीन जीविका प्राप्त करनेमें समर्थ हो जायेंगे । यह विद्यालय अमेरिकाके कर्मवीर डा० टी. बुकर वाशिंगटनके आदर्शविद्यालयके ढँगका खोलना चाहिए । आगेके अंक में वाशिंग्टनका जीवनचरित दिया गया है उससे उनकी संस्थाका परिचय मिल सकता है। इस विद्यालय में और सब प्रकारकी शिक्षाओंके साथ साथ धार्मिक शिक्षाका भी अच्छा प्रबन्ध होना चाहिए ।
For Personal & Private Use Only
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७५
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि इस प्रकारकी संस्थाको चलाने की योग्यता रखनेवाले कहाँसे आवेंगे ! जैनियोंमें सचमुच ही ऐसे वर्कर मिलना कठिन है; परन्तु अजैनों में प्रयत्न करने पर बहुत से लोग मिल सकते हैं और वे बड़ी सफलतासे ऐसी संस्थाओंको चला सकते हैं । एक औद्योगिक संस्थाके लिए यह आवश्यक भी नहीं है कि जैनी ही कार्यकर्त्ता मिलें । धर्मशिक्षाका प्रबन्ध जैनियोंके द्वारा हो ही जायगा ।
३ सरस्वती सदन - इस संस्थाके चार विभाग किये जावें । १ लगभग एक लाख रुपये के खर्चसे जैनधर्मके संस्कृत, प्राकृत, मागधी और हिन्दी भाषा के तमाम हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थ संग्रह किये जावें और उनसे एक अद्वितीय जैन पुस्तकालय स्थापित किया जाय । ५० हजार रुपये खर्च करके सर्वसाधारणोपयोगी सब तरहके विशेष करके संस्कृत, हिन्दी और अँगरेजीके ग्रन्थ संग्रह किये जावें और इन्दौर में जो एक अच्छे सार्वजनिक पुस्तकालयकी कमी है उसकी पूर्ति की जाय । २५ हजारकी पूँजीसे एक अच्छा जैनप्रेस खोला जाय और ७५ हजार की पूँजीसे संस्कृत हिन्दी अँगरेजी आदि भाषाओं में जैनग्रन्थ छपवा छपवाकर लागतके दामोंपर, अर्धमूल्य में अथवा बिना मूल्य वितरण किये जावें । ऐसा प्रयत्न किया जाय जिससे थोड़े ही समय में प्रत्येक स्थानके मन्दिर में एक एक अच्छा पुस्तकालय बन जावे । इसी विभागसे अच्छे लेखकोंको पारितोषिक आदि देने की भी व्यवस्था की जाय । लगभग ५० हजारकी पूँजीसे एक अच्छे साप्ताहिक पत्रके और एक उच्चश्रेणीके मासिक पत्रके निकालने की व्यवस्था की जाय । ये दोनों पत्र इस ढंगके निकाले जानें कि जिससे जैन और अजैन सब ही लाभ उठा सकें। शेष रकमसे • इमारतों और कर्मचारियोंकी व्यवस्था की जाय ।
For Personal & Private Use Only
-
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
४ संस्कृतविद्यालय - हमारे यहाँ संस्कृतकी कई पाठशालायें हैं परन्तु धनाभावसे उनकी अवस्था जैसी चाहिए वैसी सन्तोषजनक नहीं है । इसलिए अबतक एक आदर्श संस्कृतविद्यालयकी आवश्यकता बनी ही है । यह ठीक है कि संस्कृत भाषा अब कोई जीवित भाषा नहीं है । संसारकी सर्वश्रेष्ठ भाषा होनेपर भी उसमें हमारी नवीन जीवन समस्याओंके हल करनेकी शक्ति नहीं है; तो भी हमें यह न भूल जाना चाहिए कि वह हमारे पूर्वजोंके यशोराशिकी स्मृति है और हमारी प्राचीन सभ्यताकी उज्ज्वल निदर्शन है । और धर्मतत्त्वों का मर्म समझना तो उसकी शरण लिये बिना अब भी एक तरहसे बहुत कठिन है । अतएव अँगरेजी और हिन्दीके विद्यालयों के समान इस पवित्र देववाणीकी रक्षाके लिए संस्कृतविद्यालयकी भी बड़ी भारी आवश्यकता है । चार लाखकी रकमसे संस्कृतविद्यालय बहुत अच्छी तरहसे चल सकता है । संस्कृत विद्यार्थियोंके विषय में अकसर यह शिकायत सुनी जाती है कि वे पण्डिताई करनेके सिवा और किसीके कामके नहीं होते हैं; परन्तु प्रयत्न करने से यह शिकायत दूर हो सकती है । संस्कृतके साथ साथ उन्हें अच्छी हिन्दी, काम चलाऊ अँगरेजी और किसी एक उद्योगकी शिक्षा देनेका भी प्रबन्ध करना चाहिए । ऐसा करने से वे जीविका के लिए चिन्तित न रहेंगे । शिक्षापद्धतिका ज्ञान भी उन्हें अच्छी तरहसे करा देना चाहिए जिससे यदि वे अध्यापकी करना चाहें तो योग्यतापूर्वक कर सकें। संस्कृतके अध्यापकोंकी आवश्यकता भी हमारे यहाँ कम नहीं है ।
अन्तमें मैं यह निवेदन कर देना भी आवश्यक समझा हूँ कि इस बड़ी रकम से केवल एक ही अच्छी संस्था स्थापित करना चाहिएइसका एकसे अधिक जुदाजुदा कामोंमें बाँटना उन लोगों के लिए
For Personal & Private Use Only
-
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७७
बहुत कष्टप्रद होगा, जो इससे बडी बडी आशायें कर रहे हैं। क्योंकि छोटी छोटी संस्थाओंके खोलनेवाले तो बहुतसे हैं-छोटी संस्थायें हैं भी अनेक; परन्तु एकमुश्त इतनी बड़ी रकम देकर एक विशाल संस्था खोलनेवाले एक सेठजी ही हैं । उन्हें अपनी इस विशेषतापर ध्यान रखना चाहिए।
कविवर बनारसीदासजी पर एक भ्रममूलक
आक्षेप। "सुनी कहे देखी कहें, कलपित करें बनाय । दुराराध ये जगतजन, इन सौं कछु न वसाय ॥"
-अर्धकथानक। नाटकसमयसार, बनारसीविलास आदि आध्यात्मिक ग्रन्थोंके कर्ता कविवर बनारसीदासजीसे प्रायः सारा जैनसमाज परिचित है। जैनधर्मके भाषासाहित्यमें उनकी जोडका शायद ही और कोई कवि हुआ हो । उनकी रचना बहुत ही उच्चश्रेणीकी है । वे केवल अनुवादक, या - टीकाकार नहीं थे--किन्तु धर्मके मर्मको समझकर और उसे अपने रंगमें रंगकर अपेन शब्दोंमें प्रगट करनेवाले महात्मा थे। वे स्वयं अपना ५५ वर्षका जीवनचरित ( अर्धकथानक ) लिखकर भाषासाहित्यमें एक अपूर्व कार्य कर गये हैं और बतला गये हैं कि भारतवासी विद्वान् भी इतिहास और जीवनचरितका महत्त्व समझते थे
और उनका लिखना भी जानते थे । उनके ग्रन्थोंका जैनधर्मके तीनों सप्रदायोंमें एकसा आदर है; सब ही उन्हें भक्तिभावपूर्वक पढकर आत्म| कल्याण करते हैं।
For Personal & Private Use Only
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनके इस आदर और भक्तिभावको क्षीण करनेके लिए सहयोगी जैनशासनने अपने २४ दिसम्बरके अंकमें एक लेख प्रकाशित किया है और उसमें बनारसीदासजीको एक नवीन मतका प्रवर्तक और निन्हव ठहराया है। हम इस लेखके द्वारा यह बतला देना चाहते हैं कि बनारसीदासजी जैसा कि सहयोगी समझता है शुष्क अध्यात्मी निन्हव या किसी पाखण्डमतके प्रवर्तक नहीं थे। ___ बनारसीदासजीके समयमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके एक विद्वान् हो गये हैं। उनका नाम था श्रीमेघविजयजी उपाध्याय । उपाध्यायजीने 'युक्तिप्रबोध ' नामका एक प्राकृत नाटक और उसकी स्वोपज्ञसंस्कृत टीका लिखी है। यह नाटक बनारसीदासजीके. मतका खण्डन करनेके लिए लिखा गया था जैसा कि नाटककी इस प्रारंभिक गाथासे. मालूम होता है:
पणमिय वीर जिणंदं दुम्मयमयमयविमदणमयंदं । ___वोच्छं सुयणहियत्थं वाणारसीयस्समयभेयं ॥
अर्थात् दुर्मतरूपी मृगके नाश करनेके लिए मगेन्द्र के समान महावीर भगवानको नमस्कार करके, मैं सुजनोंके हितार्थ वानारसीदासके मतका भेद बतलाता हूँ।
उक्त नाटकके अभी तक हमें दर्शन नहीं हुए परन्तु जैनशासनके कथनानुसार उसमें लिखा है कि " बनारसीदास आगरेके रहनेवाले श्रीमाली वैश्य थे और लघु खरतरगच्छके अनुयायी थे। श्वेताम्बर सम्प्रदायके माने हुए तत्त्वोंपर उनकी श्रद्धा थी। उनकी धर्मदृढता रुचि और श्रद्धा प्रशंसनीय थी। समय समयपर वे प्रोषध उपवासादि तप और उपधान वगैरह किया करते थे; सामायिक प्रतिक्रमण आदि नित्यनियमोंकी भी वे पालना करते थे। इसके साथ ही वे साधु और
For Personal & Private Use Only
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७९
गृहस्थोंके आचार विचारोंके भी अच्छे ज्ञाता थे। यद्यपि इस समय उन्हें अध्यात्मसे अतिशय प्रेम था, परन्तु वह नाममात्रका अध्यात्म नहीं सच्चा अध्यात्म था। इसके बाद दर्शनमोहके उदयसे उनके मनमें इस प्रकारकी भावना हुई कि 'साधु और श्रावकोंके आचारमें अनेक अतीचार लगते हैं। शास्त्रोंमें साधुओं और श्रावकोंका जैसा आचार वर्णन किया गया है वैसा न साधु पालते हैं और न श्रावक उसके अनुसार चलते हैं। अर्थात् आजकल न तो साधुपना है और न श्रावकंपना; और जो द्रव्यक्रियायें की जाती हैं उनसे कोई फल निकलनेवाला नहीं। अतएव केवल अध्यात्ममें लीन होना ही सर्वश्रेष्ठ है।' जब उनके मनमें इस प्रकारका विश्वास हुआ तब उसे उन्होंने अपने गुरुपर भी प्रकट कर दिया। गुरु महाराजने बहुत ही अच्छी युक्तियाँ देकर समझाया कि व्यवहारकी बड़ी भारी आवश्यकता है। केवलीभगवान् भी व्यवहारका त्याग नहीं करते हैं। दिगम्बराचार्योंने भी समयसारमूल तथा उसकी टीकामें और दूसरे अनेक ग्रन्थोंमें व्यवहारकी पुष्टि की है। परन्तु दर्शनमोहके उदयसे उन्हें कोई भी बात न रुची। बाद उन्होंने पं० रूपचंद, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुँवरपाल और धर्मदासके साथ मिलकर श्वेताम्बर दिगम्बरका खिचडारूप एक जुदा मत चलाया और हिन्दीमें जो समयसारनाटक बनाया उसमें भी मूल समयसारके अतिरिक्त बहुतसी नई बातें घुसेड़ दीं। श्वेताम्बरसम्प्रदाय छोड़के जब वे दिगम्बरसम्प्रदायमें गये तब वहाँ भी उन्हें गुरुकी पींछी कमण्डलुपर शंका हुई ओर वे दिगम्बर पुराणोंको अप्रमाणिक मानने लगे । बनारसीदासजीने अपना मत वि० १६८० में प्रगट किया।"
युक्तिप्रबोधमें यह भी लिखा है कि “जब बनारसीदासजीकी मृत्यु हो गई, तब उन्होंने अपनी गादीपर कुँवरपालको बैठाया । क्योंकि उनके
For Personal & Private Use Only
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
कोई सन्तान नहीं थी। उनके पीछेकी परम्परा उन्हें गुरुके तुल्य गिनती थी और उनकी परम्पराके माननेवाले समय समयपर 'श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायमें ऐसा कहा है, इस प्रकार न कहकर यह कहते थे कि 'गुरुमहाराजने ऐसा कहा है '।" । __ सहयोगी जैनशासनके उक्त आक्षेपका सारा दारोमदार इसी युक्तिप्रबोध नाटक पर है । नाटकके उक्त कथनपर विश्वास करके ही उसने बनारसीदासजीपर कई इलजाम लगा डाले हैं, पढ़ने या विचारनेका उसने कष्ट नहीं उठाया । यदि वह ऐसा करता तो एक महात्माकी कीर्तिको कलङ्कित करनेका अपराध उससे न होता। ___ युक्तिप्रबोधके कर्ताका पहला आक्षेप यह है कि बनारसीदासजी केवल अध्यात्ममें लीन हो गये थे और द्रव्य क्रियाओंको उन्होंने कष्टक्रियायें समझकर छोड़ दी थीं । अर्थात् व्यवहारको छोड़कर वे केवल, निश्चयावलम्बी होगये थे और इस तरह निश्चय और व्यवहार दोनोंकी साधना करनेवाले जैनधर्मको उन्होंने केवल निश्चयसाधक बनानेका प्रयत्न किया था । इतना ही नहीं, उन्होंने अपना एक नया ही मत प्रचलित किया था। परन्तु बनारसीदासजीके ग्रंथोंसे इस बातका प्रमाण वहीं मिलता। यद्यपि अध्यात्म या निश्चयकी ओर उनका अधिक झुकाव मालूम होता है परन्तु व्यवहारको भी उन्होंने छोड़ न दिया था; उनके ग्रन्थोंमें वीसों स्थल ऐसे हैं जिनमें व्यवहारकी पुष्टि मिलती है। यथाः
जो बिन ज्ञान क्रिया अवगाहै, जो बिन क्रिया मोक्षपद चाहै। जो बिन मोक्ष कहै मैं सुखिया, सो अजान मूढ़नमें मुखिया॥
-नाटकसमयसार । इसमें जो बिना क्रियाके मोक्ष चाहता है उसे मूर्ख बतलाकर क्या बनारसीदासजीने यह स्पष्ट सिद्ध नहीं कर दिया कि मैं क्रिया या व्यव
For Personal & Private Use Only
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
हारको आवश्यक समझता हूँ ! नीचे लिम्वे पद्योंने भी मालूम होता है कि वे व्यवहारके उच्छेदक नहीं थे:
जाकी भगति प्रभावसों, कीनों ग्रन्थ निबाहि ।
जिन प्रतिमा जिन सारिखी, नमै बनारसि ताहि ॥७३॥ जोली ग्यानको उदोत तौलौ नहिं बंध होत,
बरते मिथ्यात तब नानाबंध होहि है। ऐसौ भेद सुनिकै लग्यौ तू विषय भोगनिसौं,
जोगनिसौं उद्दिमकी रीतितें बिछोहि है ॥ मुनि भैया संत तू कहै मैं समकितवंत, __ यह तो एकंत परमेसरकी दोहि है । विषयसौं विमुख होहि अनुभवदसा अरोहि,
मोखसुस टोहि तोहि ऐसी मति सोहि है ॥९-१६ बंध बढ़ावै अंध है, ते आलसी अजान ।
मुकति हेतु करनी करें, ते नर उद्यमवान ॥ विवहार दिष्टिमी विलौकति बंध्यौ सौ दीस,
निहचै निहारत न बांध्यो इन किन ही। एक पच्छ वंध्यौ एक पच्छसौ अबंध सदा,
दोऊ पच्छ अपने अनादि धरे इन ही ॥ कोऊ कहै समल विमलरूप कहै कोऊ,
चिदानंद तैसाई बखान्यो जैसौ जिन ही। बंध्यौ मानै खुल्यो मान दुहूं नैको भेद जाने,
सोई ग्यानवंत जीव तत्त्व पायौ तिन ही ॥४-२४
इसके सिवाय बनारसीविलास और नाटकसमयसार इन दोनों ही ग्रन्थों में जिनपूजा, प्रतिमापूजा, बाईस अभक्ष्य, ग्यारह प्रतिमा, तप, दान, नौधाभक्ति, आदिका सुन्दर वर्णन है और ये सब विषय व्यवहार
For Personal & Private Use Only
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
में ही गर्मित हैं । जो केवल निश्चयका पोषक है वह इन विषयोंका वर्णन नहीं कर सकता। ___ बनारसीदाजीने कोई नवीन मत चलाया था, उनके ग्रन्थोंसे इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। युक्तिप्रबोधके कर्त्ताको छोड़कर और कोई इस बातका कहनेवाला नहीं है । आगरेमें बनारसीदासजीके पीछे दिगम्बरसम्प्रदायके अनेक ग्रन्थकर्ता हुए हैं जिन्होंने उनका नाम बड़े आदरसे लिया है। यदि उनका कोई नवीन मत होता और उसकी परम्परा कँवरपाल आदिसे चली होती, तो यह कभी संभव न था कि दूसरे प्रन्थकर्ता जो कि अपने सम्प्रदायके कट्टर श्रद्धालु थे, वनासीदासजीकी प्रशंसा करते । बनारसीदासजीके ग्रन्थोंका प्रचार भी अधिकतासे न होता। उनका नाटकसमयसार तो ऐसा अपूर्व ग्रन्थ है कि उसे
जैनोंके तीनों सम्प्रदाय ही नहीं अजैन लोग भी पढ़कर अपना कल्याण करते हैं।
दूसरा आक्षेप यह है कि 'बनारसीदास न तो दिगम्बरी थे और न श्वेताम्बरी-उन्होंने दोनोंका एक खिचडा बनाया था।' यह ठीक है कि बनारसीदास श्रीमाल वैश्य थे, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उनका जन्म हुआ था और खरतरगच्छीय यति भानुचन्द्र उनके गुरु थे; परन्तु पीछे दिगम्बर सम्प्रदायके ही अनुयायी हो गये थे ऐसा उनकी रचनासे स्पष्ट मालूम होता है। साधुवन्दना नामक कवितामें उन्होंने मुनियोंके अट्ठाईस मूल गुणोंका वर्णन किया है और उसमें मुनिके लिए वस्त्रोंका त्याग करना या दिगम्बर रहना आवश्यक बतलाया है । इसके सिवा उत्तम कुलके श्रावकके यहाँ भोजन करना उचित बतलाया है। ये दोनों बातें श्वेताम्बर सम्प्रदायसे विरुद्ध हैं- .
लोकलाजविगलित भयहीन, विषयवासनारहित अदीन । नगन दिगम्बर मुद्राधार, सो मुनिराज जगत सुखकार ॥२८
For Personal & Private Use Only
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८३
उत्तमकुल श्रावक संचार, तासु गेह प्रासुक आहार ।
भुंजै दोष छियालिस टाल, सो मुनि बंदी सुरत सँभाल॥११ एक जगह वस्त्रसहित प्रतिमाका निषेध करते हुए लिखा है:
पटभूषन पहरे रहै, प्रतिमा जो कोई । सो गृहस्थ मायामयी, मुनिराज न होई ॥२ जाके तिय संगत नहीं, नहिं वसन न भूषन । सो छवि है सरवग्यकी, निर्मल निर्दूषन ॥३
-बनारसीविलास, पृष्ट २३४ ___ और भी, नाटकसमयसारमें अठारह दोषोंका वर्णन करते हुए केवलीको भूखप्यासरहित बतलाया है, मक्खनको अभक्ष्य बतलाया है और स्थविरकल्प जिनकल्पके वर्णनमें लिखा है-; 'थविरकलपी जिनकलपी दुबिध मुनि, दोऊ बनवासी दोऊ नगन रहत हैं।" ये सब बातें श्वेताम्बर मानतासे, विरुद्ध हैं।
किसी नये या मिश्रित मतके स्थापित करनेको वे बुरा समझते थे, ऐसे पुरुषको उन्होंने स्वयं ही विपरीत मिथ्यादृष्टि कहा है:
ग्रंथ उकत पथ उथपि जो, थापै कुमत सुकीय। सुजस हेत गुरुता गहै, सो विपरीती जीय ॥
-समयसार। - तीसरा आक्षेप यह है कि उन्होंने दिगम्बर पुराणोंकी मानता छोड़ दी थी। परन्तु युक्तिप्रबोधके लेखको छोड़कर इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। विरुद्ध इसके दो चार रचनाओंसे यही सिद्ध होता है कि वे पुराणोंको मानते थे । बनारसीविलासमें 'वेसठ शलाका पुरुषोंकी 'नामावली,' 'नवसेना विधान,' वेदनिर्णय पंचासिका,' आदि कवितायें पुराणोंके अनुसार ही लिखी गई हैं। एक कवितामें जुगलियोंके धर्मका भी वर्णन किया गया है।
For Personal & Private Use Only
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
चौथा आक्षेप यह है कि उन्होंने हिन्दीमें नाटकसमयसार बनाया और उसमें मूल समयसारके अतिरिक्त बहुतसी बातें घुसेड दी !' इससे युक्तिप्रबोधके कर्ताका यदि यह आशय हो कि उन्होंने मूलसमयसारके अभिप्रायोंसे विरुद्ध बातें अपने भाषासमयसारमें मिला दी, तो इसके लिए कोई प्रमाण नहीं। जिन लोगोंने इस ग्रन्थका और आत्मख्याति टीकाका स्वाध्याय किया है वे मुक्तकण्ठसे इस बातको स्वीकार करेंगे कि बनारसीदासजीको मूल ग्रंथकर्ताके और संस्कृतटीकाके भावोंकी रक्षा करनेमें और उनके अभिप्रायोंको स्पष्ट करनेमें भाषाटीकाओंके जितने रचयिता हुए हैं उन सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है । और यदि नवीन बातें घुसेड़ देनेका यह मतलब हो कि उन्होंने मूलग्रन्थका शब्दशः अनुवाद नहीं किया है, बहुतसी बातें अपनी ओरसे कहीं हैं तो इसमें बनारसीदासजीकी निन्दा नहीं उलटी प्रशंसा है। सच्चा टीकाकार या भाषान्तरकार वही है जो मूल ग्रन्थके विचारोंको आत्मसात करके उन्हें अपने शब्दोंमें अपने ढंगसे एक निराले ही रूपमें प्रकाशित करे; न कि विभक्त्यर्थ या शब्दार्थ मात्र लिखकर छुट्टी पा ले । समयसारके अन्तिम भागमें मूल प्राकृत ग्रन्थसे दो तीन बातें अधिक हैं और उनका उल्लेख भाषामें स्पष्ट शब्दोंमें कर दिया गया है-एक तो अमृतचन्द्रसू. रिने अपनी टीकामें जो स्याद्वादका स्वरूप और साधकसाध्यद्वार नामके दो अध्याय अधिक लिखे हैं और जिनकी मूलग्रन्थको समझनेके लिए बहुत ही आवश्यकता है, दूसरे गुणस्थानोंका स्वरूप । इसके लिए बनारसीदासजी कहते हैं:--
परम तत्त्व परचै इसमाहीं, गुनथानककी रचना नाहीं। . यामैं गुनथानक रस आवै, तो गिरंथ अति.शोभा परवै ॥ अर्थात् गुणस्थानोंका स्वरूप इस ग्रन्थके लिए शोभावर्द्धक होगा ऐसा समझकर उन्होंने इसका लिखना आवश्यक समझा { अत:
For Personal & Private Use Only
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह आक्षेप व्यर्थ है कि "समयसारमें बहुतसी नई बातें घुसेड दी गई
__ इस तरह जितने आक्षेप बनारसीदासजी पर किये गये हैं, उन सबका निराकरण हो जाता है । अब प्रश्न यह है कि उपाध्याय मेघविजयजीने अपने ग्रन्थमें उनपर आक्षेप क्यों किये ? क्या वे सर्वथा निर्मूल हैं ?
नहीं, बनारसीदासजीकी एक समय ऐसी अवस्था अवश्य ही हो गई थी-वे व्यवहारको सर्वथा ही छोड़कर केवल अध्यात्मको पकड़ बैठे थे । इसका उल्लेख उन्होंने अपने अर्धकथानक नामक जीवनचरितमें स्वयं ही किया है । वि० सं० १६८० के लगभग जब उन्होंने अर्थमलजी नामक अध्यात्मप्रेमी सज्जनके कहनेसे नाटक'समयसारका अध्ययन किया तब वे बाह्य क्रियाओंसे बिलकुल ही हाथ धो बैठे । उनके चन्द्रभान, थानमल और उदयकरन नामक मित्रोंकी भी यही दशा हुई । और तो क्या भगवानको चढ़ाया हुआ खानेमें भी इन्होंने कोई दोष न समझा ! आपको ये मुनिराज भी बना लेते थे:
"नगन होहिं चारों जने, फिरहिं कोठरी माहिं ।
कहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहिं ।" उनकी इस अवस्थाको देखकरः-- ... “ कहहिं लोग श्रावक अरु जती, बानारसी खोसरामती!" अपनी इस अवस्थाका उन्होंने इन शब्दोंमें परिहास किया है:
“करनीको रस मिट गयो, भयो न आतमस्वाद ।
भई बनारसीकी दसा, जथा ऊँटको पाद ॥" . - उनकी यह दशा वि० सं० १६८० से १६९२ तक रही। मालूम होता है कि उपाध्यायजीने इसी समय अपने ग्रन्थकी रचना की होगी
For Personal & Private Use Only
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
और जैसा कि बनारसीदासजीने स्वयं लिखा है कि उस समय श्रावक और यति लोग मुझे 'खोसरा-मती' कहते थे-उन्हें एक नवीन मतका प्रवर्तक लिख दिया होगा । परन्तु कविवरकी आगे यह दशा नहीं रहीं थी। वि० सं० १६९२ में पं० रूपचन्दजीका आगरेमें आगमन हुआ। उन्होंने इन्हें अध्यात्मके एकान्त रोगमें प्रसित देखकर गोम्मटसाररूप औषधि देना प्रारंभ कर दिया । तब गुणस्थानोंके अनुसार ज्ञान और क्रियाका विधान सुनते ही बनारसीदासजीके हृदयके पट खुल गये । वे कहते हैं:तब बनारसी औरहि भयौ, स्यादवादपरणति परणयो। सुनि सुनि रूपचंदके वैन, बानारसी भयो दिदजैन ॥ हिरदेमैं कछु कालिमा, हुती सरदहन वीच ।
सोउ मिटी समता भई, रही न ऊँच न नीच ॥ इससे स्पष्ट है कि जिस अवस्थाका वर्णन उपाध्यायजीने किया है। वह * संवत् १६८० से लेकर १६९२ तककी है-परन्तु आगे बनारसीदासजी दृढश्रद्धानी जैन बन गये थे।
इस बीचमें कविवरने बहुतसी पद्यरचना की थी। उसका संग्रह भी बनारसीविलासमें किया गया है। यद्यपि उक्त रचना उस समय की है जब वे केवल निश्चयावलंबी थे तो भी उसमें कोई दोष नहीं है। जीवनचरितमें उसके विषयमें कहा है:
सोलह सौ वानवै लौं, कियौ नियतरसपान । पै केवीसुरी सब भई, स्यादवाद परमान॥ इससे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि बनारसीदासजीकी रचना सर्वथा निर्दोष और कल्याणकारिणी है; उससे जैनधर्मको या
* उपाध्यायजीने बनारसीदासजीके मतकी उत्पत्तिका समय भी यही १६८० बतलाया है। १ नियतरस-निश्चयनय । २ कविता। ।
For Personal & Private Use Only
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनसमानको किसी प्रकारकी हानि पहुँचनेकी संभावना नहीं। और नाटकसमयसारकी रचना तो उन्होंने उक्त अवस्थासे उत्तीर्ण हो जानेके बाद संवत् १६९३ में की है। इससे उसके विषयमें किसी प्रकारकी शंका ही नहीं हो सकती।
युक्तिप्रबोधकी रचना किस समय हुई, यह हमें अभीतक मालूम नहीं है। यदि उपाध्याय मेघविजयजीने उसे सत्यकी भित्तिपर बनाया है तो वह संवत् १६९२ के पहले पहलेका बना हुआ होना चाहिए। परन्तु जैनशासनके कथनानुसार यदि उसमें बनारसीदासजीकी मृत्युका और कँवरपालजीके द्वारा उनकी परम्परा चलनेका भी जिकर है तो कहना होगा कि या तो स्वयं उपाध्यायजीने किसी द्वेषके वश, उनके निर्दोष सत्यमार्गानुयायी हो जानेपर भी, उनपर दोषारोप किया है और यह संभव भी है क्योंकि बनारसीदासजी अन्तमें दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी हो गये थे और उपाध्यायजी स्वयं श्वेताम्बर थे, या युक्तिप्रबोध बना तो होगा उसी १६८० से १६९२ तकके बीचमें, जब बनारसीदासजी एकान्तनिश्चयावलम्बी थे परन्तु पीछे अनावश्यक हो जाने पर भी उसको आवश्यक बनाये रखनेके खयालसे उन्होंने स्वयं या उनके किसी शिष्यने उक्त परम्परा चलनेकी बात लिख दी होगी। इस बातका निर्णय युक्तिप्रबोधके देखनेसे हो सकता है । कुछ भी हो, पर बनारसीदासजीकी रचना और उनकी आत्मकहानी ( जीवनचरित) इस बातको अच्छी तरह स्पष्ट कर देती है कि वे किसी नये मतके प्रवर्तक, निन्हव या पाखण्डी नहीं थे। आशा है कि जैनशासनके सम्पादक महाशय इस लेखपर विचार करेंगे और एक महात्मापर उन्होंने जो आक्षेप किये हैं उनको दूर करनेकी उदारता दिखलावेंगे।
For Personal & Private Use Only
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
विविध प्रसङ्ग।
१ इन्दौरका उत्सव। इन्दौरका उत्सव आनन्दके साथ समाप्त हो गया। इसमें सन्देह नहीं कि यदि इसके साथ ही 'जैनहाईस्कूल' के खोलनेका भी समारम्भ होता तो उत्सवका रंग कुछ और ही हो जाता, परन्तु स्कूल न खुल सका, इससे लोगोंका उत्साह कुछ मन्दसा रहा-तो भी उत्सव खासा हुआ और अच्छी सफलताके साथ हुआ। उपदेश और व्याख्यानोंकी, शास्त्रचची और उन्नतिचर्चाकी, सभाओं
और प्रस्तावोंकी कई दिन तक अच्छी चहल पहल रही। मालवा प्रान्तिक सभाकी ता० २ और ३ अप्रैलको दो बैठकें हुई। उनमें दो बातें महत्त्वकी हुई-एक तो सभापति सेठ हीराचन्द नेमीचन्दका विचारपूर्ण व्याख्यान और दूसरी, सभाके स्थायी फण्डके लिए लगभग सात हज़ार रुपयोंका चन्दा । एक दिन मोरेनाकी जैनसिद्धान्तपाठशालाके स्थायी फण्ड खोलनेका विचार किया गया। एक लाख रुपयेकी आवश्यकता समझी गई। स्थायी फण्डके लिए एक ट्रम्न • कमेटी चुनी गई और चन्दा एकत्र करनेके लिए एक 'डेप्युटेशन पार्टी' बनाई गई । दानवीर सेठ हुकमचन्दजीने डेप्युटेशनके साथ घूमनेकी बड़ी प्रसन्नतासे स्वीकारता दी और जब सभाके सम्मुख चन्देकी अपील की गई तब आपने पाठशालाको बड़े ही उत्साहसे १०००० रुपया देकर उसके स्थायी फण्डकी नीव डाल दी। लगभग डेड हजार रुपयेके और भी चन्दा हुआ। गरज यह कि अब सिद्धान्तपाठशालाके स्थायी होनेमें कोई सन्देह नहीं रहा । डेप्युटेशन पार्टीका दौरा बहुत जल्दी शुरू होगा। इस उत्सवमें दो कार्य और भी बड़े महत्त्वके हुए -एक तो रायबहादुर सेठ कल्याणमजीने इन्दौरमें एक कन्यापाठशाला खोलनेके लिए २५००० रु० देना स्वीकार किया और ता. ६ अप्रैलको उसका प्रारंभिक मूहुर्त भी कर दिया और दूसरा इन्दौर में एक 'उदासीनाश्रम' खोलनेका निश्चय किया गया । इसके लिए दानवीर सेठ हुकमचन्दजीने १०००० रु० ( आश्रमकी इमारतके लिए ) रायबहादुर सेठ कल्याणमलजीने १०००० रु. और अण्यान्य धर्मात्माओंने लगभग ५००० रु० का और भी चन्दा देना स्वीकार किया। इस तरह इस उत्सवमें सब मिला कर लगभग ७० हजार रुपयोंका दान हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि इस समय इन्दौरकी धनिकमण्डलीकी उदारताका स्रोत खूब. ही
For Personal & Private Use Only
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८९
बेगसे वह रहा है। भगवानसे प्रार्थना है कि यह बेग बहुत समय तक जारी रहे और इससे सारा जैनसमाज हराभरा सुस्निग्ध सफल होता रहे।
२ इन्दौरकी उल्लेख योग्य घटनायें। इन्दौरके इस उत्सवमें कुछ' घटनायें ऐसी हुई हैं जिनका उल्लेख करना हम बहुत ही आवश्यक समझते हैं और उनसे हम बहुत कुछ लाभ उठानेकी आशा. रखते हैं । ता. १ अप्रैलकी रातको श्रीयुक्त शीतलप्रसादजी ब्रह्मचारीका एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ । उसमें आपने जैनधर्म और जैनसमाजकी उन्नति-. के उपाय बतलाते हुए कहा कि “ वर्तमान जैनसमाज अनेक जातियोंसे बना. हुआ है और उनमें प्रायः ऐसी ही जातियाँ अधिक हैं जिनकी जनसंख्या बहुत ही थोड़ी है । इन सब जातियोंमें परस्पर विवाहसम्बन्ध नहीं होता है
और इससे बड़ी भारी हानि यह हो रही है कि हमारी संख्या दिन पर दिन घटती. जा रही है। प्राचीन समयमें इस प्रकारका बन्धन नहीं था। हमारे ग्रन्थोंमें अनेक. जातियोंके परस्पर विवाह होनेके बहुतसे प्रमाण मिलते हैं। इस लिए यदि अब भी हमारी जातियोंमें परस्पर विवाह होने लगे तो कुछ हानि नहीं है।" यह प्रस्ताव ब्रह्मचारीजीने बहुत ही नम्रतासे पेश किया था और प्रारंभमें यह भी कह दिया. था कि प्रत्येक मनुष्यको अपने विचार प्रगट करनेका अधिकार है, इस लिए मैं अपने विचार आप लोगों पर प्रकट कर देना चाहता हूँ। मैं यह नहीं कहता कि इसे मान ही लेवें; मानने न माननेके लिए आप स्वतंत्र हैं, पर इस प्रस्ताव पर आप. विचार अवश्य ही करें। इसके बाद पं० दरयावसिंहजी सोधियाने उक्त प्रस्तावका, शान्तिके साथ विरोध किया और बतलाया कि इसकी आवश्यकता नहीं है । इस तरह यह विषय यहाँ ही समाप्त हो चुका था। परन्तु कुछ महाशय इससे बहुत ही. क्षुब्ध हुए और सभाविसर्जित हो जानेपर सभास्थानमें ही उन्होंने गालागालि शुरू करके एक तरहका हुल्लड़ मचा दिया ! इसके बाद दूसरे दिन एक महात्माने सभामें खड़े होकर ब्रह्मचारीजीके कथनका लोगोंको मनमाना ऊँटपटाँग अर्थ समझाकर उनकी शानके खिलाफ बहुतसी बातें कहीं । चाहिए यह था कि इसपर ब्रह्मचारीजीको भी बोलनेका मौका दिया जाता; परन्तु वे कहते कहते रोक दिये गये और इस तरह न केवल उनके विचारोंके गले पर छुरी चलाई गई, किन्तु उनका अपमान भी किया गया। इसी तरहकी एक घटना और भी ता० ३. की रातको हुई। कुँवर दि
For Personal & Private Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
ग्विजयसिंहजीका व्यारख्यान हो रहा था । उन्होंने कहा कि जैनियोंकी जनसंख्या घट रही है। और यह नियम है कि जब किसी चीज़का खर्च तो जारी रहता है पर आमदनीकी कोई सूरत नहीं होती तब उसका एक न एक दिन शेष हो ही जाता है । इस लिए हमें चाहिए कि अजैनोंको जैन बनाकर अपनी संख्याको क्षीण होनेसे रोकें। बस, इतना सुनते ही बहुतसे लोग भड़क उठे ओर हुल्लड मचानेके लिए खड़े हो गये। यह देखकर सेठ हुकुमचन्दजी खड़े होगये और उन्होंने बहुत कुछ समझा बुझाकर बड़ी मुश्किलसे उन्हें शांत किया। सेठजीने कहा कि “ इसमें भड़कनेकी कोई बात नहीं है। प्रत्येक जातिका मनुष्य जैनधर्म धारण कर सकता है। यह आपका सामाजिक या जातीय प्रश्न नहीं है-ये यह नहीं कहते कि जो लोग जैनधर्म धारण करलें उनके साथ तुम रोटी बेटी व्यवहार भी जारी कर दो । फिर इतनी उछल कूद मचानेकी क्या आवश्यकता है। इत्यादि ।” इन दो घटनाओंसे हमारे शिक्षित भाईयोंको जानना चाहिए कि हमारे समाजमें विचारसहिष्णुताकी कितनी कमी है और जब तक लोगोंमें इतना भी धैर्य नहीं है-वे दूसरोंकी बातोंको सुन भी नहीं सकते है तबतक समाजमें किसीभी सुधारको आश्रय मिलनेकी आशा कैसे की जा सकती है ! इस विषयमें मालवा आदि प्रान्त तो बहुत ही बढ़े चढ़े हैं-उनकी रूढ़ियों या संस्कारोंके विरुद्ध एक शब्द भी यदि कोई कह दे तो उनके मिजाजकी गर्माका पारा १०५ डिग्रीपर जा पहँचे। इसका कारण उनकी घोर अज्ञानता है। जब उनके कानोंतक कभी ऐसे शब्द गये ही नहीं, अपनी संकीर्ण परिधिके बाहर भी कुछ है यह जब उन्हें मालूम ही नहीं, तब ऐसा होना स्वाभाविक ही है। इस लिए सबसे पहले हमारा यह कर्तव्य होना चाहिए कि सर्व साधारणमें विचारसहिष्णुता उत्पन्न करें। इसके लिए कुछ नये विचारोंके परन्तु शान्त दूरदर्शी और सदाचारी उपदेशक नियत किये जावें आरै वे जगह जगह घूमकर विचारसहिष्णुताके सिद्धान्त समझावें, नये विचारोंको उत्तमताकें साथ लोगोंके कानोंतक पहुँचावें, देश और समाजकी वर्तमान परिस्थितियोंका ज्ञान करावें । सुधारसम्बन्धी कुछ ट्रेक्ट छपाकर जगह जगह वितरण किये जावें और समाचारपत्रोंमें सुधारसम्बन्धी लेख खूब स्वाधीनताके साथ लिखे जावें। यदि वर्तमान समाचारपत्रोंसे काम न चले-वे यदि अपनी दब्बू दुरंगी और गिरी हुई पालिसीको छोड़ना पसन्द न करें तो एक दो बिलकुल स्वाधीन और शानदार पत्र निकालनेका प्रयत्न किया जाय।
For Personal & Private Use Only
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९१
यह हमें याद रखना चाहिए कि जबतक हमारा नये उत्थानका संदेशा लोगोंके कानोंतक इस जोरसे न पहुँचेगा कि उनकी झिल्लियाँ फटने लगें और वे सुनते सुनते ऊब जावें, तबतक उनमें विचारसहिष्णुता नहीं आ सकती-उन्हें सुननेका अभ्यास नहीं हो सकता और तब तक कोई भी नये सुधारके होनेकी आशा नहीं की जा सकती। इस ख़यालसे कि जब ये समझने लगेंगे तब हम कुछ सुनावेंगे हमें सैकड़ों वर्ष तक भी सुनानेका अवसर नहीं मिलेगा। सफलता की कुंजी यही है कि हम उद्योग करते रहें-कर्तव्य करते रहें और विघ्नबाधाओंकी और भ्रूक्षेप भी न करें।
३ जैन हाईस्कूल क्यों न खुला? पाठकोंको मालूम है कि जयपुरनिवासी पं० अर्जुनलालजी सेठी बी. ए को हाईस्कूलकी प्रबन्धकारिणी कमेटीने इस लिए चुनकर इन्दौर बुला लिया था कि वे जैन हाईस्कूलके प्रिंसिपाल बनकर कार्य करें। सेठीजी लगभग १० बर्षसे शिक्षाप्रचार सम्बन्धी कार्य कर रहे हैं। शिक्षापद्धति और शिक्षासंस्थाओंके विषयमें उन्होंने बहुत उच्च श्रेणीका ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया है। इस विषयमें से जैन समाजमें अद्वितीय हैं । धार्मिक ज्ञान भी उनका बहुत बढ़ा चढ़ा है । इन बातोंपर ध्यान देनेसे कहना पड़ता है कि प्रबन्धकारिणी कमेटीने उनके चुननेमें बहुत बड़ी योग्यताका परिचय दिया था और सेठीजीके द्वारा उसका हाईस्कूल भारतवर्षका एक आदर्श हाईस्कूल बन जाता, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । परन्तु ' यच्चेतसापि न कृतं तदिहाभ्युपैति ' जो कभी सोचा भी नहीं था वह हो गया; हमारे दुर्भाग्यसे सेठीजीपर एक भयंकर विपत्ति आकर टूट पड़ी जिससे उत्सवके समय हाईस्कूल खुल न सका और यदि हमारा अनुमान सत्य हो तो जैन हाईस्कूल सदाके लिए एक उत्साही स्वार्थत्यागी संचालकसे वंचित हो गया। जहाँ तक हम जानते हैं सेठीजी आज तक कभी किसी राजनैतिक आन्दोलनमें शामिल नहीं हुए है। वे शान्तिप्रिय और राजभक्त जैनजातिके केवल एक धार्मिक और सामाजिक शिक्षक थे। उन्होंने शिक्षाप्रचारका जो बड़ा भारी भार उठा रक्खा था उसको छोड़कर और किसी काममें हाथ डालनेके लिए उनके पास समय भी न था । परन्तु आज कल देशकी दशा ही कुछ ऐसी हो रही है कि राजनीतक मामलोंसे दूर रहनाले लोग भी सुखकी नींद नहीं सोने पाते । यह सुनकर 'सारा जनसमा उ ठा कि ता० ८ मार्चको सेठीजी और उनके 'शिष्य कृष्णजीको पुतिन गरिफ्तार कर ले गई। बीचमें जब यह सुना कि
For Personal & Private Use Only
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेठीजी और उनके शिष्य देहलीसे वापस लाकर छोड़ दिये गये हैं तब बहुत कुछ सन्तोष हुआ। परन्तु थोड़े ही दिन बाद ता. २३ को जब वे फिर गिरिफ्तार कर लिए गये और साथ ही शिवनारायण द्विवेदी, मोतीचन्द शाह आदि उनके तीन चार विद्यार्थी भी गिरिफ्तार किये गये, तब हम लागोके आश्चयका कुछ ठिकाना नहीं रहा। अब तक सब लोग हवालातमें ही हैं परन्तु स्पष्टतः यह किसी पर भी प्रकट नहीं है कि ये सब क्यों गिरिफ्तार किये गये हैं। केवल यही सुना जाता है कि देहलीके. राजद्रोहसम्बधी मामलेमें सन्देहके कारण ये सब पकड़े गये हैं। जब तक यह मामला अदालतमें न आ जावे और कुछ खुलासा मालूम न हो तब तक इस विषयमें हमें कुछ लिखनेका आधिकार नहीं। परन्तु यह हम अवश्य कहेंगे कि सरकारको बहुत सोच समझकर ये मामले चलाने चाहिए। कहीं ऐसा' न हो कि व्यर्थ ही निरुपद्रवी और शान्तिप्रिय लोग, सताये जावें और इसका लोगोंके चित्तपर कुछ और ही परिणाम हो। हमें विश्वास है कि जैनप्रजा जिसे वास्तवमें राजद्रोह कहते हैं उससे कोसों दूर है।
४ रोगनिवारिणी रमणी । पेरिस (फ्रान्स ) के पत्रोंमें वहाँकी 'मेडम ललोज' नामकी एक स्त्रीवेज सम्बन्धामें बड़ी ही आश्चर्यजनक बातें प्रकाशित हुई हैं । वचय नमें ज्योंही वर किसी झाडपर अपना हाथ रखली थी त्योंही उसके पत्ते और फूल खिल उठते थे। इस समय वह चाहे जिस रोगीको हाथसे स्पर्श करके या केवल दृष्टिपात करके नीरोग कर सकती है। इस तरह रोग दूर करते समय उसके हाथमेंसे एक प्रकारका प्रबाह निकलता है। यह प्रवाह यदि फोटो लेनेके काच पर डाला जाता है तो उसपर नुनहरी या गुलाबी निशान हो जाते हैं। जब वह दूसरोंका दर्द दूर कर चुकती है तब उसे थाडी देरके लिए रर्द होने लगता है जो कि आपही आप आराम हो जाता है । सैकडों मीलकी दूरी पर रहनेवाले रोगीको भी वह अपने घर बैठे आराम पहुँचा सकली है । वह न तो विज्ञापन प्रकाशित कराती है और न मान तथा धनंकी वह इच्छा रखती है। वह बहुत ही धर्मपरायणा है। यह एक आत्माकी अद्भुत शक्तियोंका प्रत्यक्ष दृष्टान्त है।
भ्रमसंशोधन । जैनहितैषीके पिछले अंकके 'ग्रन्थपरीक्षा' नामक लेखका प्रूफ सावधानीसे नहीं देखा गया, इस लिए उसमें बहुतसी अशुद्धियाँ रह गई हैं। श्लोकोंके नम्बरों
और शब्दोंमें बहुत प्रमाद हुआ है। इसका वर्तमान्त है। आशा है कि पाठक इसके लिए हमें क्षमा करेंगे और लेखको विचाालिसीकोढनेकी कृपः करेंगे।
For Personal & Private Use Only
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
चित्रशाला स्टीम प्रेस, पूना सिटीकी
अनोखी पुस्तकें। चित्रमयजगत्-यह अपने ढंगका अद्वितीय सचित्र मासिकपत्र है। "इलेस्ट्रेटेड लंडन न्यूज" के ढंग पर बड़े साइजमें निकलता है। एक एक पृष्ठमें कई कई चित्र होते हैं। चित्रोंके अनुसार लेख भी विविध विषयके रहते हैं। साल भरकी १२ कापियोंको एकमें बंधा लेनेसे कोई ४००, ५०० चित्रों का मनोहर अलबम बन जाता है । जनवरी १९१३ से इसमें विशेष उन्नति की गई है। रंगीन चित्र भी इसमें रहते हैं। आर्टपेपरके संस्करणका वार्षिक मूल्य ५॥) डा० व्य० सहित और एक संख्याका मूल्य ॥) आना है। साधारण कागजका वा० मू० ३॥) और एक संख्याका ।)॥ है।।
राजा रविवर्माके प्रसिद्ध चित्र-राजा साहबके चित्र संसारभरमें नाम पा चुके हैं। उन्हीं चित्रोंको अब हमने सबके सुभीतेके लिये आर्ट पेपर। पर पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है। इस पुस्तकमें ८८ चित्र मय विवरण: के हैं। राजा साहबका सचित्र चरित्र भी है। टाइटल पेज एक प्रसिद्ध रंगीन चित्रसे सुशोभित है। मूल्य है सिर्फ १) रु०।
चित्रमय जापान-घर बैठे जापानकी सैर । इस पुस्तकमें जापानके सृष्टिसौंदर्य, रीतिरवाज, खानपान, नृत्य, गायनवादन, व्यवसाय, धर्मविषयक और राजकीय, इत्यादि विषयोंके ८४ चित्र, संक्षिप्त विवरण सहित हैं। पुस्तक अब्बल नम्बरके आर्ट पेपरपर छपी है। मूल्य एक रुपया।
सचित्र अक्षरबोध-छोटे २ बच्चोंको वर्णपरिचय कराने में यह पुस्तक बहत नाम पा चुकी है। अक्षरोंके साथ साथ प्रत्येक अक्षरको बतानेवाली, उसी अक्षरके आदिवाली वस्तुका रंगीन चित्र भी दिया है। पुस्तकका आकार बडा। है। जिससे चित्र और अक्षर सब सुशोभित देख पड़ते हैं। मूल्य छह आना।
वर्णमालाके रंगीन ताश-ताशोंके खेलके साथ साथ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेके लिये हमने ताश निकाले हैं। सब ताशोंमें अक्षरोंके साथ साथ रंगीन चित्र और खेलनेके चिन्ह भी हैं। अवश्य देखिये। फी सेट चार आने ।
सचित्र अक्षरलिपि-यह पुस्तक भी उपसचित्र अक्षरबोध" के ढंगकी है। इसमें बाराखडी और छोटे के दिये हैं। वस्तुचित्र सब रंगीन है।
तकसे छोइसीसे इसका मूल्य दो
आने है।
For Personal & Private Use Only
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________ सस्ते रंगीन चित्र-श्रीदत्तात्रय, श्रीगणपति, रामपंचायतन, भरतभेट हनुमान, शिवपंचायतन, सरस्वती, लक्ष्मी, मुरलीधर, विष्णु, लक्ष्मी, गोपीचन्द, अहिल्या, शकुन्तला, मेनका, तिलोत्तमा, रामवनवास, गजेंद्रमोक्ष, हरिहर भेट, मार्कण्डेय, रम्भा, मानिनी, रामधनुर्विद्याशिक्षण, अहिल्योद्धार, विश्वामित्र मेनका, गायत्री, मनोरमा, मालती, दमयन्ती और हंस, शेषशायी, दमयन्ती इत्यादिके सुन्दर रंगीन चित्र। आकार 745, मूल्य प्रति चित्र एक पैसा। श्री सयाजीराव गायकवाड बडोदा, महाराज पंचम जाज और महारानी मेरी, कृष्णशिष्टाई, स्वर्गीय महाराज सप्तम एडवर्डके रंगीन चित्र, आकार 8x10 मूल्य अति संख्या एक आना। लिथोके बढियाँ रंगीन चित्र-गायत्री, प्रातःसन्ध्या, मध्याह्न सन्ध्या, सायंसन्ध्या प्रत्येक चित्र।) और चारों मिलकर // ), नानक पंथके दूस गुरू, स्वामी दयानन्द सरस्वती, शिवपंचायतन, रामपंचायतन, महाराज जाज, महारानी मेरी। आकार 164 20 मूल्य प्रति चित्र / ) आने / अन्य सामान्य-इसके सिवाय सचित्र कार्ड, रंगीन और सादे, स्वदेशी बटन, स्वदेशी दियासलाई, स्वदेशी चाकू, ऐतिहासिक रंगीन खेलनेके ता आधुनिक देशभक्त, ऐतिहासिक राजा महाराजा, बादशाह, सरदार, अंग्रेजी राजकर्ता, गवर्नर जनरल इत्यादिके सादे चित्र उचित और सस्ते मूल्य पर मिलते हैं। स्कूलोंमें किंडरगार्डन रीतिसे शिक्षा देने के लिये जानवरों आदिके चित्र सब प्रकारके रंगीन नकशे ड्राईगका सामान, भी योग्य मूल्यपर मिलता है। इस पतेपर पत्रव्यवहार कीजिये। मैनेजर चित्रशाला प्रेस, पूना सिटी केशर। -काश्मीरकी केशर जगत्प्रसिद्ध है। नई फसलकी उम्दा केशर। शीघ्र मंगाईये / दर 1) तोला। तकी मालायें। सूतकी माला लिए सबसे अच्छी समझी जाती हैं। जिन भाइयोंको साओंकी दमसे मंगावें। हर वक्त तैयार रहती हैं। दर एक रुपये मैनेजर, जेनग्रन्थ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only