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________________ चौथा आक्षेप यह है कि उन्होंने हिन्दीमें नाटकसमयसार बनाया और उसमें मूल समयसारके अतिरिक्त बहुतसी बातें घुसेड दी !' इससे युक्तिप्रबोधके कर्ताका यदि यह आशय हो कि उन्होंने मूलसमयसारके अभिप्रायोंसे विरुद्ध बातें अपने भाषासमयसारमें मिला दी, तो इसके लिए कोई प्रमाण नहीं। जिन लोगोंने इस ग्रन्थका और आत्मख्याति टीकाका स्वाध्याय किया है वे मुक्तकण्ठसे इस बातको स्वीकार करेंगे कि बनारसीदासजीको मूल ग्रंथकर्ताके और संस्कृतटीकाके भावोंकी रक्षा करनेमें और उनके अभिप्रायोंको स्पष्ट करनेमें भाषाटीकाओंके जितने रचयिता हुए हैं उन सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई है । और यदि नवीन बातें घुसेड़ देनेका यह मतलब हो कि उन्होंने मूलग्रन्थका शब्दशः अनुवाद नहीं किया है, बहुतसी बातें अपनी ओरसे कहीं हैं तो इसमें बनारसीदासजीकी निन्दा नहीं उलटी प्रशंसा है। सच्चा टीकाकार या भाषान्तरकार वही है जो मूल ग्रन्थके विचारोंको आत्मसात करके उन्हें अपने शब्दोंमें अपने ढंगसे एक निराले ही रूपमें प्रकाशित करे; न कि विभक्त्यर्थ या शब्दार्थ मात्र लिखकर छुट्टी पा ले । समयसारके अन्तिम भागमें मूल प्राकृत ग्रन्थसे दो तीन बातें अधिक हैं और उनका उल्लेख भाषामें स्पष्ट शब्दोंमें कर दिया गया है-एक तो अमृतचन्द्रसू. रिने अपनी टीकामें जो स्याद्वादका स्वरूप और साधकसाध्यद्वार नामके दो अध्याय अधिक लिखे हैं और जिनकी मूलग्रन्थको समझनेके लिए बहुत ही आवश्यकता है, दूसरे गुणस्थानोंका स्वरूप । इसके लिए बनारसीदासजी कहते हैं:-- परम तत्त्व परचै इसमाहीं, गुनथानककी रचना नाहीं। . यामैं गुनथानक रस आवै, तो गिरंथ अति.शोभा परवै ॥ अर्थात् गुणस्थानोंका स्वरूप इस ग्रन्थके लिए शोभावर्द्धक होगा ऐसा समझकर उन्होंने इसका लिखना आवश्यक समझा { अत: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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