SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ २९३ वाँ पद्य शिवमतके प्रकरणका है। उत्तरार्धके न होनेसे साफ अधूरापन प्रगट है। क्योंकि पूर्वार्धमें नव द्रव्योंमेंसे चारके नित्यानित्यत्वका वर्णन है बाकीका वर्णन उत्तरार्धमें है। शेष पद्योंका वर्णन आगे दिया जायगा। ऊपरके कोष्टकसे दोनों ग्रंथोंमें पद्योंकी जिस न्यूनाधिकताका बोध होता है, बहुत संभव है कि वह लेखकोंकी कृपा ही का फल हो-जिस प्रतिपरसे विवेकविलास छपाया गया है और जिस प्रतिपरसे कुंदकुंदश्रावकाचार उतारा गया है, आश्चर्य नहीं कि उनमें या उनकी पूर्व प्रतियोंमें लेखकोंकी असावधानीसे ये सब पद्य छूट गये हों-क्योंक पद्योंकी इस न्यूनाधिकतामें कोई तात्विक या सैद्धान्तिक विशेषता नहीं पाई जाती । बल्कि प्रकरण और प्रसंगको देखते हुए इन पद्योंके छूट जानेका ही अधिक खयाल पैदा होता है । दोनों ग्रंथोंसे लेखकोंके प्रमादका भी अच्छा परिचय मिलता है । कई स्थानोंपर कुछ श्लोक आगे पीछे पाये जाते हैं-विवेकविलासके तीसरे उल्लासमें जो पद्य नं. १७,१८ और ६२ पर दर्ज हैं वे ही पद्य कुंदकुंद श्रावकाचारमें क्रमशः नं. १८,११ और ६० पर दर्ज हैं । आठवें उल्लासमें जो पद्य नं. ३१७-३१८ पर लिखे हैं वे ही पद्य कुंदकुंदश्रावकाचारमें क्रमश: नं. ३११-३१० पर पाये जाते हैं अर्थात् पहला श्लोक पीछे और पीछेका पहले लिखा गया है । कुंदकुंदश्रावकाचारके-तीसरे उल्लासमें श्लोक नं. १६ को 'उक्तं च' लिखा है और ऐसा लिखना ठीक भी है; क्योंकि यह पद्य दूसरे ग्रंथका है और इससे पहला पद्य नं० १५ भी इसी अभिप्रायको लिये हुए है। परन्तु विवेकविलासमें इसे 'उक्तं च' नहीं लिखा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy