SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८) ग्रंथकार महाशय एक स्थानपर लिखते हैं कि-कपट करके भी यदि निःस्पृहत्व प्रगट किया जाय तो वह फलका देनेवाला होता है। यथाः- . . " नराणां कपटेनापि निःस्पृहत्वं फलप्रदम् ॥ ८-३९६ ( उत्तरार्ध) ___ इस कथनसे कपट और बनावटका उपदेश पाया जाता है । इतना नीचा और गिरा हुआ उपदेश भगवत्कुंदकुंद और उनसे घटिया दर्जेके दिगम्बर मुनि तो क्या, उत्तम श्रावकोंका भी नहीं हो सकता। (९) दशवें उल्लासमें छह प्रकारके बाह्य तपके नाम इस प्रकार लिखे हैं: " रसत्यागस्तनुक्लेश औनादयमभोजनम् ।। लीनता वृत्तिसंक्षेपस्तपःषोढा वहिर्भवम् ॥ २५॥" अर्थात्-१ रसत्याग, २ कायक्लेश, ३ औनोदर्य, ४ अनशन, ५ लीनता और ६ वृत्तिसंक्षेप (वृत्तिपरिसंख्यान), ये छह बाह्य तपके भेद हैं। ___ इन छहों भेदोंमें 'लीनता' नामका तप श्वेताम्बर जैनियोंमें ही मान्य है । श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिने ' योगशास्त्र' में भी इन्हीं छहों भेदोंका वर्णन किया है। परन्तु दिगम्बर जैनियोंमें 'लीनता' के स्थानमें 'विविक्तशय्यासन, वर्णन किया है; जैसा कि तत्त्वार्थसूत्रके निम्नलिखित सूत्रसे प्रगट है:___ “अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥९-१९॥" इससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ श्वेताम्बर जैनियोंका है। दिगम्बर ऋषि भगवत्कुंदकुंदका बनाया हुआ नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy