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________________ उनके इस आदर और भक्तिभावको क्षीण करनेके लिए सहयोगी जैनशासनने अपने २४ दिसम्बरके अंकमें एक लेख प्रकाशित किया है और उसमें बनारसीदासजीको एक नवीन मतका प्रवर्तक और निन्हव ठहराया है। हम इस लेखके द्वारा यह बतला देना चाहते हैं कि बनारसीदासजी जैसा कि सहयोगी समझता है शुष्क अध्यात्मी निन्हव या किसी पाखण्डमतके प्रवर्तक नहीं थे। ___ बनारसीदासजीके समयमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके एक विद्वान् हो गये हैं। उनका नाम था श्रीमेघविजयजी उपाध्याय । उपाध्यायजीने 'युक्तिप्रबोध ' नामका एक प्राकृत नाटक और उसकी स्वोपज्ञसंस्कृत टीका लिखी है। यह नाटक बनारसीदासजीके. मतका खण्डन करनेके लिए लिखा गया था जैसा कि नाटककी इस प्रारंभिक गाथासे. मालूम होता है: पणमिय वीर जिणंदं दुम्मयमयमयविमदणमयंदं । ___वोच्छं सुयणहियत्थं वाणारसीयस्समयभेयं ॥ अर्थात् दुर्मतरूपी मृगके नाश करनेके लिए मगेन्द्र के समान महावीर भगवानको नमस्कार करके, मैं सुजनोंके हितार्थ वानारसीदासके मतका भेद बतलाता हूँ। उक्त नाटकके अभी तक हमें दर्शन नहीं हुए परन्तु जैनशासनके कथनानुसार उसमें लिखा है कि " बनारसीदास आगरेके रहनेवाले श्रीमाली वैश्य थे और लघु खरतरगच्छके अनुयायी थे। श्वेताम्बर सम्प्रदायके माने हुए तत्त्वोंपर उनकी श्रद्धा थी। उनकी धर्मदृढता रुचि और श्रद्धा प्रशंसनीय थी। समय समयपर वे प्रोषध उपवासादि तप और उपधान वगैरह किया करते थे; सामायिक प्रतिक्रमण आदि नित्यनियमोंकी भी वे पालना करते थे। इसके साथ ही वे साधु और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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