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________________ परसे में विकाशसिद्धान्त के नियमोका ( Lau of Evolution) मुझे ज्ञान होने लगा: अर्थात् इस जन्मके आशय और कर्तव्यको मैं समझने लगा । पुनर्जन्मका सिद्धान्त, कर्मसिद्धान्त, जड़ चेतनकी शक्ति और उनकी खूबियाँ, अनेक दृष्टिबिन्दुओंसे प्रत्येक विचार करनेवाली नय निक्षेपोंकी योजना, स्थूल औदारिक शरीर के सिवा तैजस कार्माण शरीगका अस्तित्व, मनुष्यशरीर और विश्वरूपकी समानता, स्वर्गादि माम अदृष्ट भवनोंका अस्तित्व और सौन्दर्य, लेश्याओं ( सूक्ष्म दहके रंगों ) का स्वरूप और उनसे होनेवाले परिणाम इत्यादि बातोंने मेरे मनपर वडा भारी प्रभाव डालना शुरू किया। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं अँधेरमेंसे एकाएक प्रकाशमें आ रहा हूँ। मुझे विश्वास होने लगा कि इस नवीन प्राप्त किये हुए ज्ञानसे जीवनकी प्रत्येक घटनाका कारण ढूंढा जा सकता है । मुझे अपने भीतर छुपे हुए कोई का अनुभव होने लगा। जिस ज्ञानमें मेरे नेत्र खुल गये, और जिस ज्ञानसे समझमें नहीं आनेवाली बानाका भेद समझ में आने लगा उस ज्ञानपर मोहित हो जाना मेरे दिरा बिलकुल स्वाभाविक । अब मुझे इस बातके कहने में कुछ भी लजा या नकोच नहीं रहा कि एक दिन मैं जिस 'जैन' शब्दका कहना अपने लिए अन्छा नहीं समझता या कही 'जैन ' शब्द अपने नामके साथ जुड़ा हुआ देख मुनकर मुझे प्रसन्नता होने लगी। परन्तु मेरा यह आनन्द और उत्माह चिरस्थायी नहीं हुआ । ज्ञानकी नवीनतासे उत्पन्न हुआ आनन्द चिरस्थायी हो भी कहाँ सकता है। क्या थोडेसे मिलान्तोंका रहस्य समझ लेनेसे चिरस्थायी आनन्द प्राप्त हो सकता है ? यदि ऐसा होता तो चाहे जो मनुष्य वर्ष दो वर्ष ज्ञान प्राप्त करके मुखी हो जाता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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