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________________ दिन पर दिन जाने लगे और ज्यों ज्यों ज्ञानकी नवीनता घटने लगी त्यों त्यों मेरा आनन्द भी कम होने लगा। अब जीवन मुझे भाररूप मालूम होने लगा और मैं फिरसे जीवन और आनन्दरहित बनकर दिन बिताने लगा। - मेरी यह शुष्क अवस्था लगभग दो वर्ष तक रही। एक दिन मैं अपना दाहिना हाथ कपालपर रक्खे हुए बैठा था और अपनी इस अवस्थाका विचार कर रहा था। मैं लगभग स्थिर कर चुका था कि जैनतत्त्वज्ञानमें भी कोई वास्तविक आनन्द देनेकी शक्ति नहीं है । इतने मेरी दृष्टि उस बटनपर पड़ी जो कि मेरी आँखके सामने ही था और कमीजकी दाहिनी बाँहमें लगा हुआ था। इस बटनको मैंने कोई दो वर्ष पहले खरीदा था । यह सुवर्णका नहीं था-सोनेके बटन खरीदनेकी मेरी शक्ति भी नहीं थी; परन्तु देखनेमें सुवर्ण ही जैसा मालूम होता था। किसी हलकी' धातुपर सोनेका मुलम्मा चढ़ाकर यह बनाया गया था। मैंने देखा कि अब वह पहले जैसा नहीं रहा है-शोभारहित प्रकाशरहित हो गया है। ____अब मैंने समझा कि केवल ऊपरका भाग प्रकाशित करनेसे काम नहीं चल सकता; केवल मस्तकको ज्ञानसे भर देनेसे चिरस्थायी आनन्द या प्रकाशकी आशा नहीं की जा सकती। ' मैं ' सम्पूर्ण प्रकाशित बनूँ , मेरा हृदय और मेरा आचरण सुवर्णमय बने, तभी जीवन 'जीवनमय' और 'प्रकाशमय हो सकता है । अब मुझे विश्वास हो गया कि सुवर्ण एक बहुमूल्य वस्तु है और वह गरीबोंके लिए नहीं है। आनन्द और जीवन जितने आकर्षक हैं उतने ही वे अधिक मूल्यमें मल सकते हैं । जो दुःखको दूर करना चाहता है उसे दुःख भोगनेके । लिए-परिश्रम करनेके लिए भी तैयार होना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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