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________________ १५९ यह सोचकर मैंने 'जैन जीवन' बनानेका निश्चय किया । अर्थात् अब मैं जैनतत्त्वज्ञानको चारित्ररूपसे व्यवहार में लानेके लिए तत्पर हो गया । जिन बारह व्रतों का रहस्य समझ कर मैं जहाँ तहाँ उनकी प्रशंसा किया करता था उन्हींका पालन करनेका मैंने पक्का निश्चय कर लिया । (४) वास्तव में सारी कठिनाइयाँ मेरे सामने इसी समय उपस्थित हुई । बीडी भंग आदि पदार्थों के सेवनका मुझे बहुत ही शौक था। परन्तु अब इनके छोड़े बिना व्रतोंका पालन करना कठिन हो गया | रात्रि - भोजन, दुप्पाच्य भोजन और तीक्ष्ण चरपरे पदार्थों का त्याग व्रतीको करना ही चाहिए। नाटक, तमाशे, हँसी दिल्लगी, गपशप, मनोहर दृश्य, फेशन, वासनाओंको जागृत करनेवाले उपन्यास और काव्य, .. आकुलता बढ़ानेवाले रोजगार ; इन सब बातोंका त्याग किये बिना व्रतों का पालन नहीं हो सकता | गरज यह कि मुझे अपना सारा जीवन बदल डालना चाहिए - नवीन जीवन प्रारंभ करने के समान • इकना एक से गिनना शुरू करना चाहिए, ऐसा मुझे मालूम हुआ । वास्तव में यह काम बहुत ही कठिन था, परन्तु यह सोचकर कि गिनती के पहाडे बोटे बिना गणितज्ञ बनना असंभव है - मैंने अपने जीवनका साहसपूर्वक फिरसे प्रारंभ किया । जिन्हें उक्त वस्तुओंके छोड़नेकी कठिनाइयोंका अनुभव होगा वे ही मेरी इस समयकी असुविधाओंका बीच बीचमें आनेवाली कमजोरि - योंका और कठिनाइयोंका खयाल कर सकेंगे । " केवल मनोनिग्रह सम्बन्धी कठिनाइयोंसे ही मेरे दुःखकी पूर्ति नहीं हुई। लोगों के साथ मिलना जुलना बन्द कर देनेके कारण मेरे सम्बवी तथा इष्टमित्र मुझे मनहूस, वकत्रती, स्वार्थी, अर्द्धविक्षिप्त आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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