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________________ १८० कोई सन्तान नहीं थी। उनके पीछेकी परम्परा उन्हें गुरुके तुल्य गिनती थी और उनकी परम्पराके माननेवाले समय समयपर 'श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायमें ऐसा कहा है, इस प्रकार न कहकर यह कहते थे कि 'गुरुमहाराजने ऐसा कहा है '।" । __ सहयोगी जैनशासनके उक्त आक्षेपका सारा दारोमदार इसी युक्तिप्रबोध नाटक पर है । नाटकके उक्त कथनपर विश्वास करके ही उसने बनारसीदासजीपर कई इलजाम लगा डाले हैं, पढ़ने या विचारनेका उसने कष्ट नहीं उठाया । यदि वह ऐसा करता तो एक महात्माकी कीर्तिको कलङ्कित करनेका अपराध उससे न होता। ___ युक्तिप्रबोधके कर्ताका पहला आक्षेप यह है कि बनारसीदासजी केवल अध्यात्ममें लीन हो गये थे और द्रव्य क्रियाओंको उन्होंने कष्टक्रियायें समझकर छोड़ दी थीं । अर्थात् व्यवहारको छोड़कर वे केवल, निश्चयावलम्बी होगये थे और इस तरह निश्चय और व्यवहार दोनोंकी साधना करनेवाले जैनधर्मको उन्होंने केवल निश्चयसाधक बनानेका प्रयत्न किया था । इतना ही नहीं, उन्होंने अपना एक नया ही मत प्रचलित किया था। परन्तु बनारसीदासजीके ग्रंथोंसे इस बातका प्रमाण वहीं मिलता। यद्यपि अध्यात्म या निश्चयकी ओर उनका अधिक झुकाव मालूम होता है परन्तु व्यवहारको भी उन्होंने छोड़ न दिया था; उनके ग्रन्थोंमें वीसों स्थल ऐसे हैं जिनमें व्यवहारकी पुष्टि मिलती है। यथाः जो बिन ज्ञान क्रिया अवगाहै, जो बिन क्रिया मोक्षपद चाहै। जो बिन मोक्ष कहै मैं सुखिया, सो अजान मूढ़नमें मुखिया॥ -नाटकसमयसार । इसमें जो बिना क्रियाके मोक्ष चाहता है उसे मूर्ख बतलाकर क्या बनारसीदासजीने यह स्पष्ट सिद्ध नहीं कर दिया कि मैं क्रिया या व्यव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522793
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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