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(७) शिक्षा यह भी ग्रहण करो पतझाड़ देखकर। रह सकती है चीज़ कामहीकी निजपद पर । हुआ निकम्मा, वही गिरा, ज्यो पत्र पुराने । कर्मी इससे बनो; 'प्रकृति'को निजगुरु जाने ॥ स्वयं निकम्मे मत बनो औरोको उपदेश हो । कर्मनिष्ट उत्कर्षयुत, फिर भी अपना देश हो ॥
(८) देखो गति, कर्तव्यनिष्ट निरपेक्ष पवनकी । है न इसे कुछ चाह सुगन्धित इस उपवनकी ॥ तो भी गुणमें फँसी सुगन्ध न इसको छोडे ।
हो इसकी सहचरी आप ही नाता जोड़े॥ यश-लक्ष्मीकी लालसा छोड़, करो कर्तव्यको। भजती है वह आपही योग्यपुरुषको-भव्यको ॥
देखो, यह सहकार, मधुरतामयी सरसता
और श्रेष्ठताके घमंडसे भरा, दरसता ॥ फूल रहा है, और सफलताकी आशा पर-- बौराया है, यथा गुणी उद्धत कोई नर ॥ तुम पाकर कुछ योग्यता, या धनाढ्य होकर कभी, बनो न ऐसे बावले मिट्टी होंगे गुण सभी ॥
(१०) स्पष्टवादिता और मित्रका धर्म निभाता। यह कोकिल है धन्य, इसीसे आदर पाता ॥
वह रसालके पास बैठकर चिल्लाता है। 'कु-ऊ, कु-ऊ'* कह रहा, मित्रको समझाता है। स्वार्थी भ्रमरोके वृथा साधुवादमें पड़ अहह ! 'उसकी कुछ सुनता नहीं श्रीमदान्ध जड़ आम यह ॥ * अर्थात् यह बुरा है
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